थोरी-सी हँसी मैं हैं ठगोरी ऐसी डारी तुम,
बौरी करी भोरी ते किशोरी वृषभान की;
तब ते बिहारी, वह भई है पखान-कैसी,
जब ते निहारी रुचि मोर के पखान की।"
कितनी अच्छी योजना है! कैसा विकलकारी दृश्य है! थोड़ी-सी हँसी में ऐसी ठगोरी का डालना वास्तव में बड़े ही आश्चर्य की बात है। भोली नायिका ने अब बोलना भी बंद कर दिया है। 'भोरी' से अब वह 'बौरी' भी हो गई। अब वह 'पखान' के सदृश नहीं है, तो और क्या है? 'पखान-कैसी' के 'पखान' और 'मोर के पखान' वाले 'पखान' के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। एक 'पखान' व्रजभाषा में संस्कृत के 'पाषाण' शब्द का रूपांतर है, तथा दूसरा पक्ष (पर) का बहुवचन है। 'पखान' का यमक भी विचित्र ही है ।
अलंकार-चमत्कार
कवितागत शब्दार्थ में जो चमत्कार और शोभा है, वह रसादिकों के कारण है, पर इस चमत्कार के अतिरिक्त भी एक प्रकार का चमत्कार कविता में सुलभ है। जिस प्रकार आभूषण धारण करने से शरीर की शोभा बढ़ जाती है, उसी प्रकार उपर्युक्त चमत्कार के होने से रसादि-संयुक्त कविता भी विशेष शोभावाली हो जाती है। इस चमत्कार को काव्य-शास्त्र में 'अलंकार' नाम से पुकारते हैं। मतिरामजी ने 'ललितललाम' में अलंकार का यह लक्षण दिया है—
"रस-अर्थन तैं भिन्न जो सब्द, अर्थ के माहिं—
चमत्कार भूषन-सरिस, भूषन मानत ताहिं।"
अलंकार दो प्रकार के होते हैं, अर्थात् शब्दालंकार और अर्थालंकार। अर्थालंकारों की संख्या साधारणतया १०१ है, पर भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भेदांतरों के मतभेद से इस संख्या में घटी-बढ़ी