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मतिराम-ग्रंथावली

है। इस हाव का उदाहरण भी मतिराम ने परम मनोहर दिया है—

"पीतम को मनभावती मिलति बाँह दै कंठ;
बाँही छुटै न कंठ ते, नाहीं छुटै न कंठ।"

(७) पति के मुख से जब नायिका अन्य स्त्री का नाम सुनती है, जिससे नायक का उस दूसरी पर अनुरक्त होना समझ पड़ता है, वह मान करती है। इस प्रकार के मान को मध्यम मान कहते हैं।

एक दिन आषाढ़ की संध्या को दंपति आनंद से बैठे थे। बातों-ही-बातों में पति के मुख से अन्य स्त्री का नाम निकल गया। बस, सारा आनंद किरकिरा हो गया। नायिका मान के वश हो बैठी। उसकी भौंहें तन गईं। आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। हास्य का कहीं पता ही न रहा—

"दोऊ अनंद सों आँगन-माँझ बिराजे असाढ़ की साँझ सोहाई;
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई।
आई उन मन मैं हँसी, कोपि तिया सुरचाप-सी भौंहें चढ़ाई;
आँखिन ते गिरे आँसू के बूंद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाँई।"

उपर्युक्त छंद में जिस घटना का वर्णन है, वह प्रावृट्-काल की है। मतिरामजी ने भी मान-प्रकाशक भ्रू-संकोच, अश्रु-पात तथा हास्या-भाव की उपमा ऐसी ही चीज़ों से दी है, जिनके वर्षा के साथ वर्णन में ही विशेषता है। वर्षा काल का अपूर्व इंद्रधनुष भौंहों के चढ़ने में देख पड़ा। आँसू क्या गिरे, मेह झरने लगा, और पावस के आते-न-आते जैसे हंस भाग जाते हैं, वैसे ही हास्य की भी बिदाई कर दी गई। हास्य और हंस का श्वेत रंग कितना अनुरूप है। कवि राजा मुरारिदान ने अपने बृहत् 'जसवंत-जसोभूषण' ग्रंथ में उपर्युक्त छंद को परंपरित उपमा के उदाहरण में उद्धृत किया है।

(क) मतिराम ने नायिका की कई दशाओं का चित्र भी अनोखा खींचा है ।