नायिका का नाम 'मानवती' भी है। श्रवण, स्वप्न, चित्र और प्रत्यक्ष-नामक चार दर्शनों को रसराजकार ने आलंबन के अंतर्गत वर्णन किया है। श्रृंगार-रस में नायक और नायिका आलंबन-विभाव हैं। उद्दीपन का लक्षण मतिरामजी ने यह दिया है—
"चंद्र, कमल, चंदन, अगरु, ऋतु, बन, बाग, बिहार;
उद्दीपन - श्रृंगार के ये उज्ज्वल सृंगार।"
सखी के काम मंडन, शिक्षा, उपालंभ और परिहास हैं। दूतियाँ उत्तमा, मध्यमा और अधमा होती हैं। आलंबन और उद्दीपन-विभाव से परिपुष्ट स्थायी भाव को अनुभावों की सहायता अपेक्षित होती है। अनेक अनुभावों के अंतर्गत ही मतिरामजी ने सात्त्विक भाव भी मान लिए हैं। स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कंप, वैवर्ण्य, अश्रु एवं प्रलय-नामक आठ सात्त्विक भावों का वर्णन भी रस राज में दिया है। 'जृंभा'-नामक एक नवें सात्त्विक का वर्णन भी कुछ कवि करते हैं। इस कारण मतिराम ने उसका भी उल्लेख किया है। अनुभावों की सहायता के पश्चात् स्थायी भाव में एक अपूर्व आनंदोद्भूति होती है। इसी को रस कहते हैं। रस दो प्रकार का होता है। जिसमें नायक-नायिका का सम्मिलन हो, वह संयोग-श्रृंगार कहलाता है, तथा जिसमें मिलाप नहीं हो पाता, उसे वियोग-श्रृंगार कहते हैं। दंपति की संयोगावस्था में जो भाव उत्पन्न होते हैं, उनकी 'हाव' नाम से विशेष संज्ञा है। इन हावों के नाम लीला, विलास, विच्छित्ति, बिब्बोक, किलकिंचित्, मोट्टायित, कुट्टमित, विभ्रम, विहृत तथा ललित हैं। वियोग-श्रृंगार के तीन भेद हैं, अर्थात् १. पूर्वानुराग, २. मान तथा ३. प्रवास। मान लघु, मध्यम और गुरु, इन तीन प्रकार का होता है। वियोग-दशा में नायिका अनेक प्रकार से कष्ट पाती है। प्रत्येक अवसर के कष्ट का लक्ष्य करके नायिका की नौ दशाएँ नियत की गई हैं। इनके नाम अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुण-कथन, उद्वेग, प्रलाप,