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मतिराम-ग्रंथावली

  इस दशा में वह पूरी विप्रलब्धा नायिका हो गई।

अपने प्रियतम के साथ अन्य स्त्री के मिलन-संबंधी चिह्नों को पाकर मुग्धा सुंदरी का दुःख बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। कैसी सौम्य खंडिता है!—

"बाल नबेली न रूसनो जानति, भीतर भौन मसूसनि रोवै।"

पर मुग्धा सुंदरी शीघ्र ही रूमने की क्रिया में भी दक्ष हो गई। पहले तो वह प्रियतम के मानमोचन-संबंधी अनुनय-विनय की उपेक्षा करती है; पर अंत में उसी को पछताना पड़ता है। कलह-अंतरित इस दशा के कारण वह कलहांतरिता नायिका हो गई है। उसके प्रति सखियों का यह उपालंभ कितना ठीक है—

आई गौने काल्हि ही, सीखो कहाँ सयान?
अब ही ते रूसन लगी, अब हीं ते पछितान।

पर यह रूसना और पछताना व्यर्थ नहीं गया। उसने धीरे-धीरे पति पर अपना पूरा प्रभाव जमा लिया। वह उसके बिलकुल वश हो गए। मुग्धा संदरी ने स्वाधीनपतिका की पदवी प्राप्त कर ली। पति उसके इतना अधीन हो रहा है कि यह स्वयं लज्जित है। इस विषय में सखी के प्रति उसके हृदयोद्गार कितने भले हैं—

"हौं लखि लाजन जात मरी, 'मतिराम' सुभाव कहा कहौं पी के:
लोग मिलैं, घर घेर करैं, अब हीं तें ये चेरे भए दुलही के।"

कहाँ यह दशा, कहाँ प्रियतम के विदेश-गमन की तैयारी! जिस दिन से प्रियतम के विदेश-गमन की चर्चा सुनी है, शरीर पीला पड़ गया है—शारीरिक श्रृंगार से उदासीनता हो गई है। सखियों से हँसी करके भी चित्त नहीं बहला पाती है। प्रवत्स्यत्प्रेयसी की कैसी करुण दशा है—

"सोवति न रैन-दिन, रोवति रहति बाल,
बूझे ते कहति—सुधि मायके की आई है।"