भोगनाथ नर नाथ के, गुन गन बिमल बिसाल ।
भिच्छुक सेवति पानि हैं, पग सेवत महिपाल ॥६२३॥
अदभुत गावत जगत सब, भोगनाथ गुन गाथ।
भूमिपाल सेवत चरन, भिच्छुक सेवत हाथ ,।६२४॥
एक द्यौस की औधि पिय, अति साहस आरंभ ।
मन सों कहु बरि जात क्यों, भुजनि जलधि को अंभ ॥६२५॥
हरद बरन ते अधिक बढ़ि, सरद होत वह मित्र।
सरद जोन्ह में मानिनी, दरप न आवत चित्र ।।६२६॥
जौ वियोग बड़वागि की, ज्वाल न नेक जरयो न ।
सो सागर अनुराग को, सूखति जानि परयो न ॥६२७॥
ज्यों-ज्यों बिषम बियोग की, अनल ज्वाल अधिकाइ।
त्यों-त्यों तिय की देह में, नेह उठत उफिनाइ ॥६२८॥
बड़वानल पर बढ़ति है, बिरह ताप तिय अंग ।
अति अद्भ त अधिकाति है, प्रेम पयोधि तरंग ॥६२६।।
वहै सबै अनुनय सहित, मधुर बचन चित चाउ ।
क्यों राखे अब रोकि सखि, फूटयो प्रेम तलाउ ॥६३०।।
अति उतंग उरजनि लसत, चपल मुकत बर हार ।
मनो मेरु बिब सृग ते, गिरत गंग जुग धार ॥६३१॥
सरस बाल को मन लला, पारावार अनप ।
नीरस मानसरोवरो, मारवार के रूप ॥६३२॥
चढ़त सुन्यो नहिं स्याम में, और रंग अरु बाल ।
अधर राग सों तें रँगे, अदभुत तें नंदलाल ॥६३३॥
एक भए मन दुहुनि के, छटै न किये उपाउ।
कहौं सिंधु संभेद कौ, कोऊ न सकत छुड़ाइ॥६३४॥
छं० २० ६२६ हरद बरन = पीला । छं० नं० ६३३ अधर राग =ओठ के रंग-लाल अर्थात् प्रेम ।