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मतिराम-ग्रंथवाली

जानति सौति अनीति है, जानति सखी सुनीति ।
गुरुजन जानत लाज है, प्रीतम जानत प्रीति ॥६०२॥*
लसत चारु तारनि सहित, तिय लोचन कमनीय।
चढ़े खंजरीटनि मनो, चंचरीक रमनीय ॥६०३।।
नींद भार दाबे दृगनि, लसत पीक पर भाग।
कुबलय मुकलित होत ज्यों, परसि प्रात-रबि-राग ॥६०४।।
दरपन अमल कपोल में, परत पानि प्रतिबिंब ।
पुनि-पुनि पोंछति पीक भ्रम, देखि आदरस बिंब ॥६०५॥
कलकल कलिका कुल ललक, कोकिल कुल की केलि ।
लोलै कला कलोल के, लाल लाल कंकेलि ॥६०६॥
जल पूरित घनस्याम रुचि, उनई अँखियनि आइ।
रही कदंब कलीनि की, अंग बेलि छबि छाइ ॥६०७॥
तन दुरबल मनमथ प्रबल, ढिंग बसंत पिय दूरि ।
अचल बिरह चल जीव सखि, तनक न सुख दुख भूरि ॥६०८।।
हरयौ बसन मन भावते, फिर किंकिनि गून तोट ।
करै मनो मन भाँवती, पुलक-पटल-पट ओट ॥६०९।।
औरनि ह के लसत हैं, अति अनियारे नैन ।
मन मानत हहैं न वे, सो मन लागत पैन ॥६१०॥
है यह गाँव गुलाब बर, पुर ठाकुर के गेह ।
चलौ न आवति बास है, जो देवर की देह ॥६११॥


छं० २०६०४ राग=लाली । छं० नं० ६०५ नायिका के अमल कपोलों पर उसके हाथों की ललाई का प्रतिबिंब पड़ता है। नायिका इस बात को समझ नहीं पाती है और जब शीशे में कपोलो पर वह सुर्सी देखती है तो उसे पान की पीक जानकर पोंछने लगती है । छं० नं० ६०९ तोट=टूटा । पुलक-पटल-पट= रोमांच का परदा।

  • दे० रसराज उ० स्वकीया ।।