पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९४

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४९० मतिराम-ग्रंथावली रति बिलास सुक सारिकनि, कहै गुरुनि में प्रात । लाज ललित गुन गौरि के, दुरे गात में गात ॥५८२॥ परी बाल मुख-चंद में, बिरह राहु की छाँह । कै दृग दान छुड़ाइय, सकृत हेतु करि नाँह ॥५८३॥ अति अवदात महा मिही, कसी उरोज उतंग । केसरि रंग रंगी लगै, अँगिया अंगनि संग ॥५८४॥ फूले नहीं पलास ए, बन में लगी दवारि। साँच कहति सजनीनि तौ, सकै न नैननि जारि ॥५८५।। उड़त भौंर ऊपर लस, पल्लव लाल रसाल । मनो सधूम मनोज को, ओज-अनल की ज्वाल ॥५८६॥ बिकच अरुन मेचक बरन, गुंजा बीज समान । किसूक मनो मनोज के, कालकट जुत बान ॥५८७॥ प्रथम कामि जन मननि कों, रंगत सुरभि रितुराग । करत अलंकृत' पल्लवनि, पुनि पीछे बन बाग ॥५८८॥* देखि परे नहिं दूबरी, सुनियें स्याम सुजान । जानि परे परजंक में, अंग आँच अनुमान ॥५८९॥ सपने हूँ चितवत नहीं, और ओर बर बाल । तू अपने अनुराग के, रँग्यो रंग में लाल ॥५९०॥ कहा होति अति ही निठर, तू न बिलोकति बाम । तो सिँगार रस रंग में, अंग रंगे निज स्याम ॥५९१॥ १ काम कामि जन मानिकों, २ मंडत है नव । छं० २७ ५८५ वारि-वन की अग्नि । छं० नं० ५८६ अर्थ-आम के लाल पल्लवों पर उड़ते हुए भौंरों की शोभा ऐसी लगती है मानो धुएँ के सहित कामदेव के ओज-अनल (शक्ति-रूपी अग्नि) की ज्वाला हो ।

  • दे० रसराज उ० उद्दीपन ।

+दे० रसराज उ० व्याधि ।