पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९०

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मतिराम-ग्रंथावली

अनमिष नैन कहे न कछु, समुझै सुनै न कान । निरखे मोर पखानि के, भई पखान समान ॥५३९।।* उठे जगत दुख दैन कों, तो कठोर कुच कुंभ । निसिचर कुंभ-निकुंभ ज्यों, दानव सुंभ निसुंभ ॥५४०।। प्रतिबिंबित निज रूप लखि, पिय के नैनन माँह । मुख चुंबन को प्रेम सों, गह्यो कंठ दुहुँ बाँह ॥५४१॥ सकल कला कमनीय पिय, मिलन मोद अधिकात। बिलसति मालति मुकुल निसि, निस मुख मृदु मुसिक्यात ।५४२ दरकत नहीं बियोग में, लगें घनक घनघोर । तेरे उरजनि मिलि भयौ, मेरो हियो कठोर ॥५४३॥ हरि रानिनि में राधिका, जुवतिन बानी एक। बर सुहाग अनुराग कौ, कीनो बिमल बिबेक ॥५४४।। राधा की बेनी लखी, जो हरि गूंदी आप। चित सूख सागर को भयो, बड़वानल संताप ॥५४५॥ लसति लाल रुचि तरुनि के, अमल कपोलनि पीक। रुचि-रुचि परसत मुकुर में, मनो अनल की लीक ॥५४६॥ बाल लाल मुख सौति को, सुन्यो नाम परकास । बरषे बादर सेन पर, उड्यो हंस सम हास ॥५४७॥ कहा रहै निहचित हूँ, लखौ लाल चलि आप। प्रलय अनिल सम स्वास हैं, प्रलय अनल सम ताप ॥५४८॥


छं० नं० ५४० कुंभ, निकुंभ और शुभ, निशुंभ का वर्णन पुराणों में है । छं० नं० ५४३ उरजनिउरोजों को। छं० नं० ५४७ रसराज के मध्यम मान का भाव इस दोहे में है। छ० नं० ५४८ अनिल= वायु । अनल=अग्नि।

  • दे० रसराज उ० जड़ता । वही भाव इस दोहे में भी है।