पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

IN ४८४ मतिराम-ग्रंथावली धरै कौन बिधि धीर वह, सुनो धीर बलबीर । काम तीर की भीरभरि, हियरो भरयो तुनीर ॥५१८।। वाके हिय के हनन को, भयो पंच सर बीर। लाल तुम्हें बसकरन को, रहै न तरकस तीर ॥५१९॥ बचन कहत आवत न बनि, चलौ लखौ बलि आए। प्रबल अनंग प्रताप सों, अंग-अंग संतापु ॥५२०॥ सखिन करति उपचार अति, परति बिपति उत रोज। झुरसत ओज मनोज' के, परसि उरोज सरोज ॥५२१॥ जागत ओज मनोज के, परसि पिया के गात । पापर होत पुरैनि के, चंदन-पंकिल पात ॥५२२॥ घन-सुंदर तो छबि घटा, उनै रही मन छाइ। लाज चंचला लौं चमकि, चंचल जाति बिलाइ ॥५२३॥ सुंदरि नगर अनंग कौ, तेरो अंग अनूप । सोभित सूबरन बरन में, उरज गुरज के रूप ॥५२४॥ तुम लाइक हम हैं कहाँ, तुम हम तें कमनीय। मो मन तो तन में बसौ, बसति पाइ रमनीय ॥५२५॥ रंध्रजाल' मग है कढ़त, तिय तन दीपति पंज। झिंझिया को, सो घट भयौ, दिन ही में बन कुंज ॥५२६॥* सुनि-सूनि गनि सब गोपिकनि, समुझयो सरस सवाद। कढ़ी अधर की माधुरी, मुरली कै करि नाद ॥५२७॥ १ जालरंध्र, २ कैसो। छं० नं० ५२२ चंदन-पंकिल=जिनमें घिसा हुआ चंदन लथेड़ा है । पापर=पापड़ । छं० नं० ५२३ घन-सुंदर घनश्याम । छं० नं० ५२४ गुरज गुर्ज । छं० नं० ५२५ बसति=बस्ती।

  • दे० रसराज उ० नायिका।