ROO मतिराम-सतसई ४८३ बलय पीठि, तरिवन भुजनि, उर कुच-कुंकुम-छाप । तितै जाहु मन भावते, जितै बिकाने आप ।।५०७।।* इन झठी सौंहनि किये, नहिं हहौ अकलंक । कियो अधर अंजन प्रभा, बदन-चंद सकलंक ॥५०८॥ बैठो आनन कमल के, अरुन अधर-दल आइ। काटन चाहत भाँवते, दीजै भौंर उड़ाइ ॥५०९॥ चित्रन इत उत चटपटे, कहत लटपटे बात। ॥५१०॥ जावक दीयो पगनि में, जुवती जाति सिंगार। पूरुष प्रानप्रिय जानियत, मंडन कियो लिलार ॥५११॥ भली लगै मन भाँवते, करी आभरन आप। काम निसेनी-सी बनी, यह बेनी की छाप ॥५१२॥ जनो उडावत ही नहीं, पीर न होत सभाग। ठौर-ठौर या भौंर के, दसें अधर दल दाग ॥५१३॥ झीने झगा बिलोकियत, नख छत छबि धर नाह।। भले बिराजत ए नए, चंद्रहार हिय माह ॥५१४॥ ललित तिहारे गुननि सों, अति सनेह सरसाइ। काम ओज वाके हिए, दीनो दीप जगाइ ॥५१५॥ अतनु तेज तलफै सुतनु, तनु जीवन ज्यों मीन । नंदलाल वह ह रही, चंदकला सम छीन ॥५१६॥ कहा कहों वाकी दसा, सुनो साँवरे बात। देखे बिन कैसे जिय, देखत दृग न अघात ॥५१७॥ छं० नं० ५१० में दोहे का का अंतिम अर्द्धभाग हस्त-लिखित प्रति में नहीं है । छं० नं० ५१२ निसेनी सीढ़ी।
- दे० रसराज उ० मध्या अधीरा।