४७७ मतिराम-सतसई यों न प्यार बिसराइयै, लियो मोहिं तू मोल । मुख बिलोकि नँदलाल कौ, कहै सखी सों बोल ॥४४५॥ लखत लाल मुख पाइहौ, बरनि सकै नहिं बैन । लसत बदन सतपत्र सों, सहसपत्र से नैन ॥४४६॥ उड़ि गुलाल पिय करनि तें, लगत पिया मुख-चंद। मनो कोकनद रजनिकर, करत रजनिकर मंद ॥४४७॥ सेत बसन की चाँदनी, परत गुलाल सुरंग । मानो सुर-सरिता मिलति, सरसुति तरल तरंग ॥४४८।। सित अंबर जूत तियनि में, उड़ि-उड़ि परत गुलाल। पुंडरीक पटलनि मनो, बिलसति आतप बाल ॥४४९।। स्याम रूप अभिराम अति, सकल बिमलगुन धाम । तुम निसि-दिन 'मतिराम' की, मति बिसरौ मतिराम ॥४५०॥ १ निरखत । छं० नं० ४४६ सतपत्र-शतपत्र=कमल । सहसपत्र-सहस्रपत्र- कमल । लसत नैन=मुख और नेत्र दोनों कमल-पुष्पों के समान हैं यदि मुख शतपत्रतुल्य है तो नेत्र सहस्रपत्रवत् अर्थात् मुख देखने से यदि सौ प्रकार के मनोभावों का पता चलता है तो नेत्रों से सहस्र भावों की सूचना मिलती है। तात्पर्य यह कि मुख की अपेक्षा नेत्र अधिक बातें प्रकट करते हैं। छं० नं० ४४७ रजनिकर-रज-निकर-पराग-समूह । रजनिकर रात्रि करनेवाला चंद्रमा । छं० नं० ४४९ भावार्थ-स्त्रियाँ सफ़ेद कपड़े पहने हुए हैं। होली खेलते समय उन पर जब गुलाल पड़ता है तो ऐसा जान पड़ता है, मानो सफ़ेद कमल के दलों पर प्रातःकाल का प्रकाश विलसित हो रहा हो । छं० नं० ४५० तुम निसि-दिन मतिराम= हे राम, तुम कभी भी ‘मतिराम' कवि की बुद्धि (मति) को मत (मति) भुलाना। 'मति' शब्द का तीन बार प्रयोग हुआ है। पहली बार वह 'मतिराम' नाम का अंग है। दूसरी बार उसका अर्थ निषेधात्मक 'मत' है और तीसरी बार मति के शुद्ध अर्थ बुद्धि से प्रयोजन है । ANDigambe
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