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मतिराम–ग्रंथावली


जो रमणी रात-दिन अपने पतिदेवता के अनुराग में पगी रहती है, जिसकी सहज लज्जा और शील-गुण को देखकर पति अपने को बड़भागी मानता है, उस नारी-रत्न को स्वकीया नायिका कहते हैं । वह-

जानति सौति अनीति है, जानति सखी सुनीति ; गुरुजन जानत लाज है, प्रीतम जानत प्रीति ।

अभिनव यौवन के आगमन से मदन-विकार-युक्त, परंतु रति में वामा, मृदुल, मानवाली, सहज लजीली नायिका को मुग्धा कहते हैं।

इसके-

अभिनव यौवन-जोति सों, जगमग होत विलास ; तिय के तन पानिप बढे, पिय के नैननि प्यास ।

जब इसको अपने यौवनागम का हाल विदित नहीं रहता है, तब इसे अज्ञातयौवना कहते हैं। प्रियतम खेल में इसके नेत्र अपने हाथ से बंद करता है। इससे सात्त्विक-स्वेद का प्रादुर्भाव होता है। उस दशा में इसे ऐसा जान पड़ता है, मानो नायक ने मेरी आँखों में कपूर लगा दिया हो, तभी तो वह कहती है- "लाल, तिहारे संग में खेले खेल बलाय; मूंदत मेरे नयन हौ करन कपूर लगाय।" उसे यौवनोचित सात्त्विक भाव-वश आनेवाले स्वेद का ज्ञान नहीं है, परंतु जब उसे ऐसा ज्ञान हो जाता है, तब वह ज्ञातयौवना कहलाती है । उस दशा में वह अपने पति की ओर-

"दीठि बचाय सखीन की, छनकु निहारत छाँह ।"

मुग्धा रति में वामा तो होती ही है । सो जब भय और लाज के कारण यह पति के संग में रति नहीं चाहती, तो उसे नवोढ़ा कहते हैं । उस दशा में-

ज्यों-ज्यों परसत लाल तन, त्यों-त्यों राखति गोय; नवल बधू उर - लाज ते इंद्र-बधू-सी होय ।