४७४ मतिराम-ग्रंथावली बिरह आँच' मन उड़ि सखी, घन सुंदर तन जाइ। दुगन दाह बाढ़े तहाँ, आपुहि जात बिलाइ ॥४२०।।* जिनमें अतुल बिलोकियै, पानिप पारावार। उमड़ि चलत नित दृगनि भरि, तो मुख रूप अपार॥४२१॥ मन जद्यपि अनुरूप है, तऊ न छूटति संक। टि परै जिन भार तें, निपट पातरी लंक ॥४२२॥+ जुपै सखी ब्रज गाँउ मैं, घर-घर सहज चवाउ । तौ हरि-मुख लखिदेति किन, नैनि चकोरनि चाउ॥४२३॥x कनक-बेलि में कोकनद, तामें स्याम सरोज। तनि में मृदु मुसिक्यानि है, तामें मुदित मनोज ॥४२४॥ मो मन मेरी बुद्धि लै, करि हरि को अनुकूल । लै त्रिलोक की साहिबी, दै धतूर को फूल ॥४२५॥= फिरि-फिरि आवति जाति चलि", अंगरानी मुसिक्याति। बाल लाल कौ ललित मुख,लखिलजाति ललचाति॥४२६॥- तो मुख छबि सों हारि जग, धयो कलंक समेत । सरस इंदु अरबिंदुमुखि, अरिबिंदनि दुख देत ॥४२७॥ १ ताप, २ डरि, ३ सिराह, ४ के, ५ चलत, ६ के, ७ भजि, ८ राति मधुर।
- दे० ललितललाम उदाहरण तृतीय विषम ।
+दे० ललितललाम उदाहरण अधिक ।
- दे० ललितललाम उदाहरण अल्प ।
X दे० ललितललाम उदाहरण द्वितीय व्याघात ।
- दे० ललितललाम उदाहरण मालादीपक ।
=दे० ललितललाम उदाहरण परिवृत्ति । -- दे० ललितललाम उदाहरण कारक दीपक । ६ दे० ललितललाम उदाहरण प्रत्यनीक ।