पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४७५

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मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई ४७१ नपति नैन कमलनि बुथा, चितवत बासर चाहि। हृदय कमल में हेरि लै, कमलमुखी कमलाहि ॥३९४॥ ब्रज ठकुराइनि राधिका, ठाकुर किए प्रकास । ते मन मोहन हरि भए, अब दासी के दास ॥३९५।। पियत अधर यों देति है, कर कमलनि की मारु । लगति स्वादु के सिंधु में, मिरचि किरच लों चारु ॥३९६॥ पियत अधर तू देति है, कर कमलनि की मारु । . होत पंच अंगुरी लगें, सबल पंचसर मारु ,३९७॥ करति केलि अति प्रेम सों, पगे प्रेम मद नैन । अंबर में चंचल लसैं, खंजरीट-से नैन ॥३९८॥ प्राननाथ परदेस कों, चलियै समो बिचारि । स्याम नैन-घन बाल के, बरसन लागे बारि ॥३९९।। सरद-चाँदनी में बिकच, बिमल मालती कुंज । जगत जोतिमय मैन के, मनो सुजस के पुंज ॥४००॥ कोमल कमलनि सों कहें, तिन्हें न नेक सयान। . होत पार लागत हियें, नैन मैन के बान ॥४०१* ओठ खंडिबे को अरयो, मुख सुबास रस रत्त। स्याम रूप नँदलाल अति, नहि अलि अलि उनमत्त ॥४०२॥ मूढ' इंदु अरबिंदु में, कहत सुधा मधु बास। तो मुख मंजुल अधर में, तिनको प्रगट प्रकास ॥४०३॥ AARI १ झूठ, २ मृदु। छं० नं० ३९४ लक्ष्मी की वंदना है।

  • दे० ललितललाम उ० परजस्तापह्न ति ।

+ दे० ललितललाम उ० छेकापह्न ति । दे० ललितललाम उ० सापह्न वातिशयोक्ति ।