THAPPINEawn ४६७ मतिराम-सतसई पाइनि प्रेम जनाइ जिन, परियै नंदकुमार। अनल लाल पग लगति है, जावक लीक लिलार ॥३५२॥ रोस-भरी अँखियानि लखि, लोगनि में अनखाइ। हँसिइ कंत लपटाइ कै, एक रूप है जाइ ॥३५३॥ प्रीति द्वैज द्विजराज की, कला कलप करि चित्र । जगत लोक बंदति उदित, बढ़त मित्र जो मित्र ॥ ३५४।। अँखियनि उमंग अनंग की, छुवत अंग अनखाइ। प्रीतम तन तावति तरुनि, लाइ लगनि की लाइ ॥३५५॥ दिन-दिन दुगुन बढ़े न क्यों, लगनि-अगिनि की झार। उन-उन दृग दुहुनि के, बरसत नेह अपार ॥३५६।। लिखत बाल नख भूमि तन, लखत लाल मुसिक्यानि । लाज' छटी निसि जानियति, लाज भरी अँखियानि ॥३५७॥ चंचल निसि उद बसि रहौ, करनि प्रात बसि राज। अरबिंदनि पै इंदिरा, संदर नैननि लाज ॥३५८।।* घटत-बढ़त, बढ़ि जाइ पुनि, घटत-घटत घटि जाइ। नाह रावरे नेह बिधु, मंडल जितौ बनाइ ॥३५९॥ तलफत घाइनि जीव कों, कौन जियावत आनि । जो न होति उन दगनि में, सुधा मधुर मुसिकानि ॥३६०॥ - छं० नं० ३५६ लगनि अगिनि=प्रेमाग्नि । उन-उनै उठ-उठकर । नेह=स्नेह, स्निग्ध पदार्थ । प्रेमी और प्रेमिका के नेत्र अत्यधिक स्नेह की वर्षा किया करते हैं तब प्रेमाग्नि की प्रचंडता प्रतिदिन द्विगुणित क्यों न हो जाय। यह प्रकट बात है कि अग्नि पर स्निग्ध पदार्थ छोड़ने से वह और भी अधिक प्रज्वल्लित हो उठती है । छं० नं० ३५७ लाज छुटी अँखियानि =नायिका की लजीली आँखों से जान पड़ता है कि रात में लज्जा ने उसका पल्ला छोड़ दिया था अर्थात् रात में उसने प्यारे के साथ सुरति रंग में योग दिया था।
- दे० ललितललाम उ० दीपक ।