अरुन बरन बरनिन परै, अमर अधर दल माँझ । कैधौं फूली दुपहरी, कैधौं फूली साँझ ॥३४३॥* बाल बदन प्रतिबिंब बिधु, बिंब रह्यो' तिहिं संग। उयौ रहत अब रैनि दिन, तपन तपावत अंग ॥३४४॥ प्रगट दरप कंदरप कौ, तेरो अंग अनुप । सूतौ लियो नँदनंद जित, सुंदर स्याम सरूप ॥३४५॥ रोमावली कृपान सों, मारयो सिवहि मनोज । ताके भए स्वरूप द्वै, सोहत बाल उरोज ॥३४६॥ कुंद न पावत रदन रुचि, कुंदन अंग प्रकास । चंद न पावत बदन छबि, चंदन अंग सुबास ॥३४७॥ रूप रासि वह लच्छ की, तुला चढ़ी वह बाल । तऊ न पावति रावरौ, मिलन अमोलिक लाल ॥३४८।। ललित मंद कलहंस गति, मधुर मंद मुसिक्याति । चली सारदा बिसद रुचि, सरद चाँदनी राति ॥३४९॥ मैं जानी ही मिलन तें, मिटिहै तन संताप । अब सजनी दूनो चढ़यो, हतक मनोजहि दाप ॥३५०॥ साँच मदन जित आज तुम, रंजन रसिक रसाल। अनल ज्वाल दुग देखियत, लाल लाल रुचि भाल ॥३५१॥ १ उयो रह्यो तिहि, २ कंदर्प, ३ नंदलाल । छं० नं० ३४६ कामदेव और शिवजी की शत्रुता प्रसिद्ध हैं। उसी को लक्ष्य करके कवि कहता है कि रोमावली-रूप तलवार से काम ने शिवजी की बड़ी मूर्ति को काटकर उसके दो टुकड़े कर डाले वही नायिका के युगुल कुच हैं । छं० नं० ३४९ सारदा-शारदा सरस्वती । छं० नं० ३५० हतक=पापी । छं० नं० ३५१ मदनजित= महादेव ।
- दे० ललितललाम उ० संदेह ।
दे० ललितललाम उ० हेतु अपह्न ति । दे० ललितललाम उ० पर्यायोक्ति ।