पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६९

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मतिराम-सतसई


अति सुढार अति ही बड़े, पानिप भरे अनूप। नाक मुकत, नैनानि सों, होड़ परी यह रूप ॥३३१॥ कियो और को सब कछ , मान आपनो लेइ । क्यों न लहै संताप जौ, भार आप सिर देइ ॥३३२।। लीने तो अँखियानि उन, औ मुसिक्यानि रसाल । तुहूँ लाल लोचननि की, लेहि लालसा बाल ॥३३३॥ सखी तिहारे दृगनि की, मधुर' मंद मुसिक्यानि । बसति रहै निसि द्यौस हूँ, अब उनकी अँखियानि ॥३३४॥* रूप सदन मिलि तन बसन, रदन रुचिर रुचि होति । दामिनि में बिधु बिंब जनु, बिधु में दामिनि जोति ॥३३५।। मो जीवन तू कहतु है, ब्रज जीवन तूं पीउ । जु पै जीव बिन जियत तौ, धिग जीवन यह जीउ ॥३३६॥ प्रान निवासी तोहि तजि, कब को कियो उजार। तू अजहू लों बसतु है, प्रान कहा सुबिचार ॥३३७॥ तुरत डीठि लगि जाइगी, हौं बिलखी अति आनि । अनखन दैक कीजिय, अनख भरी अँखियानि ।।३३८।। बिषमय किधों पियूषमय, तेरी मृदु मुसिक्यानि । यहै मुरछित करति है, यहै जिवावति आनि ॥३३९॥ निज पग सेवक समुझि करि, करि उर तें रिस दूरि । तेरी मदू मुसिक्यानि है, मेरी जीवन मूरि ॥३४०।। लाल अमोलक लालची, करत कोटि मनुहारि। मंदिर आवत इंदिरा, दै न किवार गँवारि ॥३४१।। तरु हरह्यो करार को, अब करि कहा करार । उर धरि नंदकुमार को, चरन कमल सुकुमार ॥३४२॥ १ सुधा।

  • दे० ललितललाम उ० पर्याय ।