४५६ मतिराम-ग्रंथावली R Namoniclinindiansikasiynamited कहत तिहारो रूप सखि', यह पैंडे को खेद । ऊँची लेत उसास है, कलित सकल तन स्वेद ।।२५४॥* लै आवति हों सेज' इत, तेरी प्रीति गुपाल । बात कहो अंकहि भरौ, दूख न दीजिए लाल ॥२५५॥+ कैसें ल्याऊँ हों इहाँ, है जित नंदकिसोर । दिन हूँ में मुख चंद कों, लखि ललचात चकोर ॥२५६॥ औरनि के पाइनि दियो, नाइनि जावक लाल। प्रानपियारी रावरी, पेखतिरे तुम्हें गुपाल ॥२५७॥x पिय बियोग तिय दृग जलधि, जल तरंग अधिकाइ। बरुनि मूल बेला परसि, बहरों बहुरि बिलाइ ॥२५८॥+ धन के हेत बिलासिनी, रहे सवारे बेस। जो तिय के हिय में बसै, सो पिय बसे बिदेस ॥२५९॥= कोऊ करो अनेक यह, तजौ न टेक गपाल । निसि औरनि के पग परो, दिन औरनि के लाल ॥२६०।- कंत कहा सौहनि करो, जानि परयो अब नेह । दैन कह्यो सो बिन दिए, जान न पैहो गेह ॥२६१॥ na - BETI SARACT १ यह, २ सखि, ३ पैंडे, ४ आऊँ, ५ निरखति, ६ रसाल, ७ जात, ८ सँभारे, ९ कितेक हूँ।
- दे० रसराज उ० अन्यसंभोगदुःखिता।
+दे० रसराज उ० विश्रब्धनवोढ़ा। दे० रसराज उ० रूपगविता । x दे० रसराज उ० प्रेमगविता। +दे० रसराज उ० मुग्धा प्रोषितपतिका । =दे० रसराज उ० गणिका प्रोषितपतिका । -दे० रसराज उ० मध्या खंडिता। $ दे० रसराज उ० गणिका खंडिता।