RRITERATION ४५० मतिराम-ग्रंथावली REHENSE R ati सम-जल-कन झलकन लगे, अलकनि कलित कपोल । - पलकनि रस छलकन लगे, ललकन लोचन लोल ॥१९४।। गौने की चरचा चलें, दियें तहाँ चित बाल । अधमूंदी अँखियानि सों, गुंदी [दति माल ॥१९॥ सखी तिहारे नेह के, होत घरहिं घर घेर । पीतम तन पानिप परे, फैलि रह्यो चहुँ फेर ॥१९६॥ तू न करति मन भाँवती, रति बिपरीत बिचार। वैहै सूधे सुरत मैं, बिछियनि को झनकार ॥१९७।। कहति साँच तूं भाँवती, मेरे चित अति प्रीति । किये बिना बिपरीति रति, हिए न होति प्रतीति ।।१९८॥ दानबीर-रस के सखी, तेरे नैन-निकेत । दान समें मन दान है, हँसि उछाह कहि देत ॥१९९।। रोस किए कैसो करै, सखी तिहारे नैन । सहज मधुर मुसिक्यानि मैं, हनत मानसनि ऐन ॥२००॥ चंचलता तो चखनि की, कही न जाइ बनाइ। जिन्हें चाहि चंचल महा, चितौ अचल ह जाइ ।।२०१॥ तेरे अंगनि लाल छबि, मुख मयंक सुख माहिं । त्यों चकोर लखि लाल के, क्यों न बाल ललचाहिं ॥२०२।। नंदलाल' के रूप पर, रीझि परी इक बारि। अधर्मंदी अँखियनि दई, मुंदी प्रीति उघारि ॥२०३॥* कोपनि तें किसलय जब, होहिं कलिन तें कौल । तब चलाइए चलन की, चरचा नायक नौल ॥२०४॥ १ नँदनंदन, २ रही रिझवाय, ३ नागर। छं० नं० १९५ गूंदी [दति=गुही हुई को गुहती है। छं० नं० १९९ निकेत-घर।
- दे० . रसराज उ० प्रत्यक्षदर्शन । दे० रसराज उ० प्रौढ़ा
प्रवत्स्यत्प्रेयसी तथा ललितललाम उ० तृतीय आक्षेप । 25. ITARIALOGLEASE