पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४५१

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मतिराम-सतसई

। मतिराम-सतसई ४४७ नील नलिन दल सेज मैं, परी सुतनु तनु देह । लसै कसौटी मैं मनो, तनक कनक की रेह ।।१६६॥ मुख नीचे ऊँचे लसँ, तरुनि उरज उर माँह । मनो मुदित मन कोक जुग, पाइ कोक-नद छाँह ॥१६७।। पिय-अपराध अनेक निज, आँखिनि' हूँ लखि पाइ। तिय इकंत हूँ कंत सों, मानो करति लजाइ ॥१६८।।* तो रसु रात्यो रैनि-दिन, सुख-समुद्र के सोत । याही ते सौतीनि के, ये अनखह छत होत ॥१६९॥ निसि नियराति निहारियति, इनको मुख-अरबिंदु। सखी एक यह देखियत, तेरोई मुख इंदु ॥१७०॥ उजियारी मुख इंदु की, परी कुचनि उर आनि। कहा निहारति मुगध तिय, पुनि-पुनि चंदन जानि ॥१७१॥ दुबराई गिरि जातु है, कंकन कामिनि बाँह । उपदेस न ठहरात ज्यों, दुरजन के उर माह ।।१७२॥ मन दै सुनिए लाल यह, तनक तरुनि की बात । अँसुवा उड़गन गिरत हैं, होन चहत उतपात ॥१७३॥x कहति आपु ही बैन हैं, ऊख पियूष रसाल । कित बोलति कोकिल अली, पुनि-पुनि बूझति बाल।।१७४।। १ नैननि, २ पीय, ३ सौति-बदन, ४ तेरो आनन, ५ उरोजनि, अंगोछति । छं० नं० १६६ रेह रेखा।

  • दे० रसराज उ० उत्तमा नायिका।

+ दे० रसराज उ० मध्याबासकसज्जा ।

  • दे० ललितललाम उ० भ्रांति ।

xदे० रसराज।