मतिराम-सतसई ४४५ पगनि परे हिय पीठ पर, परे नैन जल टूटि । सींची मनो सनेह-रस, गयो मान मन छटि ॥१४५॥ पगनि परयो लखि प्रानपति, दियो मूगध-तिय रोइ। कज्जल छल मन मलिनता, ल्याए असुवा धोइ ॥१४६॥ इंदु-उपल उर बाल कौ, कठिन मान में होत । देखे बिन कैसें द्रवैं, तो मुख इंदु उदोत ॥१४७॥ भौंह बीच तिल तनक-सै, सोहत सुखमा संचि । दियो डिठौना रीझि सों,मानहुँ बिरचि बिरंचि ॥१४८।। चलत लाल के मैं कियो, सजनी हियो पखान । कहा करों दरकत नहीं, भरे बियोग कृसान ॥१४९।। चढ़ी रहै प्रतिदिन अटा, साखि सनेह सुख सोरि । लोचन पियत पियूष हैं, प्रेषि प्रान पिय पौरि ॥१५०।। कहा छपावति मगध तिय, बोलि चातुरी बोल । कह देत अनुराग की, कीरति कलित कपोल ॥१५१।। बरसाइति बर को चहूँ, बहु बिधि पूजि बिसेखि । पूरत है मनकाम कों, काम तरोवर लेखि ॥१५२।। सहज बात बूझत कछक, बिहसि नवाई ग्रीव । तरुन हिए तरुनी दई, नई नेह की नीव ।।१५३॥ करति मनोरथ बहु बहू, दृगनि अनंद उदोत । उठत सीतलायत सखी, सीतल हीतल होत ।।१५४॥ दसाहीन राधा भई, सुनिए नंदकिसोर । दीपसिखा लौं देखियत, बारि बयारि झकोर ॥१५५॥ १ इत। छं० नं० १४७ इंदु-उपलचंदकांत मणि । इस मणि के विषय में यह प्रसद्धि है कि चंद्रमा की किरणें पड़ते ही इसमें से जल छूटन लगता है। दे० रसराज उ० प्रवास । -
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मतिराम-ग्रंथावली