पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४५

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मतिराम-सतसई

ShankaRUAR - मतिराम-सतसई ४४१ साँझ समै वा छैल की, छलनि कही नहिं जाइ। बिन डर बन डरपाइ के, लियो मोहि उर लाइ ॥१०३॥* राति अँध्यारी झझकि झुकि, झूठे ही भय भागि। ललित बाल मन मालती, रही लाज उर लागि ॥१०४॥ हमसों तुमसों लाल इत, नैननि ही को नेह । उत प्यारी के दृगनि के, सलिल सींचियत देह ॥१०५।। जैतवार यह मार सों, अकस करो जिन चेत। भामिनि भौंह कमान के, गोसा ही गहि लेत ॥१०६॥ सुधा मधुर तेरो अधर, सुंदर सुमन सुगंध । पीव जीव को बंध यह', बंध जीव को बंध ॥१०७।। पग जराइ की गूजरी, नथुनी मुकुत सुढार । घने घेर को घाँघरौ, घुघरवारे बार ॥१०८॥ बंदन तिलक लिलार में, ऐसी मुख छबि होति । रूप भौन में जगमगै, मनो दीप को ज्योति ॥१०९॥ मन तें नैननि को चली, नैननि तें मन काज । द्वै दीपक की छाँह लों, बीच बिलानी लाज ॥११०॥ पीन पयोधर-भार यह, धरें छीन कटि ऐन । छोटे मुख में लसत हैं, बड़े-बड़े ए नैन ॥१११॥ तेरे मुख की मधुरई, जो चाखी चख चाहि। लगत जलज जंबीर-सो, चंद चूक-सो ताहि ॥११२।। - १ है। छं० नं० १०६ अकस झगड़ा । गोसा=किनारा । छं० नं० ११२ जंबीर-जंभीर=नींबू । चूक=अत्यंत खट्टा पदार्थ ।

  • दे० रसराज उ० क्रिया-चतुर नायक ।

+दे० रसराज उ० परकीया खंडिता।

  • दे० रसराज उ० प्रौढ़ा स्वाधीनपतिका ।

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