पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४

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मतिराम-ग्रंथावली

४० मतिराम-ग्रंथावली शृंगार को ही प्रमुखता का स्थान दिया है । सबसे अधिक वर्णन (भेद- भेदांतर आदि) भी इसी रस का किया गया है । बहुतों ने इस संबंध में अपना स्पष्ट मत प्रकट किया है कि यह रसराज है; परंतु बहुतों ने अपना मत गोल रक्खा है । चौदहवीं शताब्दी के कवि विद्याधर ने एकावली नामक एक साहित्य-ग्रंथ लिखा है। इसके रस-प्रकरण में उन्होंने भोजदेव-नामक एक पूर्ववर्ती कवि के 'शृंगार-प्रकाश' नामक ग्रंथ का उल्लेख किया है । इस ग्रंथ की रचना शृंगार की सर्व- श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये की गई थी। पं० पद्मसिंह शर्मा ने अपने संजीवन-भाष्य के ५वें पृष्ठ पर इन बातों की चर्चा की है। शृंगार-प्रकाश में कवि ने शृंगार की महत्ता निम्नलिखित श्लोकों द्वारा प्रतिपादित की है- वीराद्भुतादिषु च येह रसप्रसिद्धिः सिद्धा कुतोऽपि वटयक्षवदाविभाति ; लोके गतानुगतिकत्ववशादुपेता- मेतां निवर्तयितुमेष परिश्रमो नः। शृंगारवीरकरुणाद्भुतहास्यरौद्र- बीभत्सवत्सलभयानकशांतनाम्नः आम्नासिषुदशरसान् सुधियो वयन्तु श्रृंगारमेव रसनाद्रसमामनामः। सारांश संसार प्रकृति-पुरुष की केलि-लीला की रंग-स्थली है । नारी- पुरुष की प्रीति प्रकृति-पुरुष की बड़ी प्रीति का प्रतिबिंब-मात्र है। शृंगार-रस में इसी प्रीति का प्रतिपादन है । इस रस का स्थायी भाव प्रीति है । अन्य आठ रसों का कोई भी स्थायी भाव प्रेम की बराबरी नहीं कर सकता । शृंगार-रस के आलंबन-विभाव में ये विशेषताएँ