श्रृंगार को ही प्रमुखता का स्थान दिया है। सबसे अधिक वर्णन (भेद-भेदांतर आदि) भी इसी रस का किया गया है। बहुतों ने इस संबंध में अपना स्पष्ट मत प्रकट किया है कि यह रसराज है; परंतु बहुतों ने अपना मत गोल रक्खा है। चौदहवीं शताब्दी के कवि विद्याधर ने एकावली-नामक एक साहित्य-ग्रंथ लिखा है। इसके रस प्रकरण में उन्होंने भोजदेव-नामक एक पूर्ववर्ती कवि के 'श्रृंगार-प्रकाश' नामक ग्रंथ का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ की रचना श्रृंगार की सर्वश्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये की गई थी। पं० पद्मसिंह शर्मा ने अपने संजीवन-भाष्य के ५वें पृष्ठ पर इन बातों की चर्चा की है। श्रृंगार-प्रकाश में कवि ने श्रृंगार की महत्ता निम्नलिखित श्लोकों द्वारा प्रतिपादित की है—
वीराद्भुतादिषु च येह रसप्रसिद्धिः
सिद्धा कुतोऽपि वटयक्षवदाविभाति;
लोके गतानुगतिकत्ववशादुपेता-
मेतां निवर्तयितुमेष परिश्रमो नः।
श्रृंगारवीरकरुणाद्भुतहास्य रौद्र-
बीभत्सवत्सल भयानकशांतनाम्नः
आम्नासिषुदशरसान् सुधियो वयन्तु
श्रृंगारमेव रसनाद्रसमामनामः।
सारांश
संसार प्रकृति-पुरुष की केलि-लीला की रंग-स्थली है। नारी-पुरुष की प्रीति प्रकृति-पुरुष की बड़ी प्रीति का प्रतिबिंब मात्र है। श्रृंगार रस में इसी प्रीति का प्रतिपादन है। इस रस का स्थायी भाव प्रीति है। अन्य आठ रसों का कोई भी स्थायी भाव प्रेम की बराबरी नहीं कर सकता श्रृंगार रस के आलंबन-विभाव में ये विशेषताएँ