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४३० मतिराम-ग्रंथावली समाप्ति रुचिर अर्थ भूषन इतें', रचि जानै ‘मतिराम'। ताकी बानी जगत मैं, बिलसै अति अभिराम ॥३९९॥ आशीर्वाद जब लगि कच्छप,-कोल-सहसमुख धरनि-भारधर; जब लगि आठौं दिसनि दिग्ध सोभित दिग्गज बर। जब लगि कबि 'मतिराम' सगिरि सागर महिमंडल; अनिल अनल जब लग्गि, जोति मंडल आखंडल । नृप सत्रुसाल नंदन नवल भावसिंह भूपालमनि । जग चिरंजीव तब लगि सुखद कहत सकल संसार धनि ॥४०० कंठ कर सो सभनि मैं, सोभै अति अभिराम । भयो सकल संसार हित, कबिता 'ललितललाम' ॥४०१॥ m BSPASHREE anteractemeRRIE artite १ जिते । छं० नं० ४०० कोल=वाराह । सहसमुख =शेषजी। दिग्ध=भारी, सुंदर । अनिल =हवा । अनल=अग्नि । आखंडल= इंद्र।।