के साथ मज़े में विचरण कर सकता है। उधर स्वयं श्रृंगार महाराज हास्य और भयानक को अंगीकार कर सकते हैं, यह ऊपर दिखलाया ही जा चुका है। ऐसी दशा में श्रृंगार रस की छत्रच्छाया में सभी रस एकत्र दिखलाई पड़ सकते हैं, यह सर्वथा संभव प्रतीत होता है। इस प्रकार जब श्रृंगार रस में ऐसी सामर्थ्य है, तो उसे सब रसों का राजा या रसराज मानने में आपत्ति ही क्या रह जाती है? स्वयं देवजी के शब्दों में उनका मत इस प्रकार से है—
तीनि मुख्य नौहू रसनि, द्वै-द्वै प्रथमनि लीन;
प्रथम मुख्य तिन तिहूँ मैं, दोऊ तिहि आधीन।
हास्य रु भय सिंगार सँग, रुद्र-करुन सँग बीर;
अद्भुत अरु बीभत्स सँग बरनत सांत सुधीर।
ते दोऊ तिन दुहू जुत बीर सांत में आय—
संग होत श्रृंगार के, ताते सो रसराय।
निर्मल सुद्ध सिंगार-रसु 'देव' अकास अनंत;
उड़-उड़ि खग ज्यों और रस बिबस न पावत अंत।
भूलि कहत नव रस सुकवि, सकल मूल सिंगार;
जो संपति दंपतिनु की, जाको जग बिस्तार।
देवजी ने अपने कथन की पुष्टि में उदाहरण भी दिए हैं; पर उन सबके यहाँ उद्धृत करने से ग्रंथ का कलेवर बहुत बढ़ जायगा। यदि पाठकगण कृपा करके शब्द-रसायन का पाठ करेंगे, तो उन्हें दिखलाई पड़ेगा कि श्रृंगार रस के साथ-साथ अन्य रसों का वर्णन एक प्रतिभावान् कवि कितनी सफलता के साथ कर सकता है। कविवर केशवदास ने भी अपनी रसिकप्रिया में अन्य सभी रसों का वर्णन श्रृंगार रस के ही साथ किया है। प्रकारांतर से उन्होंने भी श्रृंगार को ही रसों में प्रधान पद दिया है। आधुनिक कवियों में कविवर सरदार ने काव्य-शास्त्र की विवेचना बड़े अच्छे ढंग से की है। श्रृंगार रस के संबंध में उनके मत का भी सारांश दिया जाता है।