पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४२

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मतिराम-ग्रंथावली

३८ मति राम-ग्रंथावली के साथ मज़े में विचरण कर सकता है। उधर स्वयं शृंगार महाराज हास्य और भयानक को अंगीकार कर सकते हैं, यह ऊपर दिखलाया ही जा चुका है। ऐसी दशा में शृंगार-रस की छत्रच्छाया में सभी रस एकत्र दिखलाई पड़ सकते हैं, यह सर्वथा संभव प्रतीत होता है । इस प्रकार जब शृंगार-रस में ऐसी सामर्थ्य है, तो उसे सब रसों का राजा या रसराज मानने में आपत्ति ही क्या रह जाती है ? स्वयं देवजी के शब्दों में उनका मत इस प्रकार से है- तीनि मुख्य नौह रसनि, द्वै-द्वै प्रथमनि लीन; प्रथम मुख्य तिन तिहूँ मैं, दोऊ तिहि आधीन । हास्य रु भय सिंगार-सँग, रुद्र-करुन सँग बीर; अद्भुत अरु बीभत्स-सँग बरनत सांत सुधीर । ते दोऊ तिन दुह जुत बीर सांत में आय- संग होत श्रृंगार के, ताते सो रसराय । निर्मल सुद्ध सिंगार - रसु 'देव' अकास अनंत उड़ि-उड़ि खग ज्यों और रस बिबस न पावत अंत । भूलि कहत नव रस सुकवि, सकल मूल सिंगार; जो संपति दंपतिनु की, जाको जग बिस्तार । देवजी ने अपने कथन की पुष्टि में उदाहरण भी दिए हैं; पर उन सबके यहाँ उद्धत करने से ग्रंथ का कलेवर बहुत बढ़ जायगा । यदि पाठकगण कृपा करके शब्द-रसायन का पाठ करेंगे, तो उन्हें दिखलाई पड़ेगा कि शृंगार-रस के साथ-साथ अन्य रसों का वर्णन एक प्रतिभावान् कवि कितनी सफलता के साथ कर सकता है । कवि- वर केशवदास ने भी अपनी रसिकप्रिया में अन्य सभी रसों का वर्णन शृंगार-रस के ही साथ किया है । प्रकारांतर से उन्होंने भी शृंगार को ही रसों में प्रधान पद दिया है। आधुनिक कवियों में कविवर सरदार ने काव्य-शास्त्र की विवेचना बड़े अच्छे ढंग से की है। शृंगार-रस के संबंध में उनके मत का भी सारांश दिया जाता है।