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मतिराम-ग्रंथावली

कहा भयो जो तजत है मलिन मधुप दुख मानि।
सुबरन बरन सुबासजुत चंपक लहै न हानि॥३२०॥

अनुज्ञा-लक्षण

करत दोष की चाह जहँ ताही मैं गुन देखि।
तहाँ अनुज्ञा कहत हैं कबिजन ग्रंथनि लेखि॥३२१॥

उदाहरण

मोर पखानि किरीट बन्यो मुकुतानि के कुंडल स्रौन बिलासी;
चारु चितौनि चुभी 'मतिराम' सु क्यौं बिसरै मुसकानि सुधा-सी।
काज कहा सजनी कुलकानि सौं लोग हँसे सिगरे ब्रजबासी;
मैं तौ भई मनमोहन को मुख चंद लखैं बिन मोल की दासी॥३२२॥


क्यौं इन आँखिन सौं निरसङ्क ह्वै मोहन को तन पापिन पीजे।
नैक निहारें कलंक लगै इह गाँव बसें कहो कैसे कै जीजे।
होत रहै मन यों 'मतिराम' कहूँ बन जाय बड़ो तप कीजे;
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरा रस लीजे॥३२३॥

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लेस - लक्षण

जहाँ दोष गुन होत है, जहाँ होत गुन दोष।
तहाँ लेस यह नाम कहि, बरनत कबि मति कोष॥३२४॥

दोष से गुण - उदाहरण

कत सजनी ह्वै अनमानो, अँसुवा भरति ससंक।
बड़े भाग नँदलाल सौं, झूठहु लगत कलंक॥३२५॥


छं॰ नं॰ ३२२ मैं तौ भई ... दासी = मैं तो मनमोहन का मुखचंद्र देखकर उनकी विना दामों की चेरी हो गई हूँ ।

  1. देखो रसराज परकीया उदाहरण।