तृतीय प्रहर्षण- लक्षण
जहाँ अर्थ की सिद्धि को जनतहि ते फल होय।
इहो प्रहर्षन कहत हैं कबि कोबिद सब कोय॥३०८॥
उदाहरण
हरि की सुधि कौं राधिका चली अली के भौन।
हँसत बीच ही मिलि गए बरनि सकै कबि कौन॥३०९॥
विषाद - लक्षण
मन इच्छित के अर्थ की प्रापति जहाँ बिरुद्ध।
तहाँ बिषादहि कहत हैं जे कबिजन मति सुद्ध॥३१०॥
उदाहरण
आवत मैं हरि कौं सपने लखि, नैसुक बाट सकोचन छोड़ी;
आगे है आड़े भए 'मतिराम' चली सुचितै चष लालच ओड़ी।
ओठनि को रस लैन कौं मोहन, मेरी गही कर कंपत ठोड़ी;
और भटू न भई कछू बात, गई इतने ही मैं नींद निगोड़ी॥३११॥
उल्लास - लक्षण
औरैं के गुन-दोष ते, औरै को गुन-दोष।
बरनत यौं उल्लास हैं, जे पंडित मतिकोष॥३१२॥
गुण से गुण-उदाहरण
गुच्छन के अवतंस लसै सिषि-पच्छनि अच्छ किरीट बनायो;
पल्लव लाल समेत छरी कर पल्लव-से 'मतिराम' सुहायो।
गुंजन के उर मंजुल हार निकुंजनि ते कढ़ि बाहिर आयो;
आजु को रूप लखे ब्रजराज को आजु ही आँखिन को फल पायो॥३१३॥