पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४१५

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ललितललाम

ललितललाम ४११ प्रथम प्रहर्षण-लक्षण जहँ उत्कंठित अर्थ की बिन उपाय ही सिद्धि । तहाँ प्रहर्षन कहत हैं जे कबिजन मतिसिद्धि ॥३०२॥ उदाहरण स्याम बसन मैं स्याम निसि दुरी न तिय की देह । पहुँचाई चहुँ ओर घिरि भौंर-भीर पिय-गेह ॥३०३॥ मनभावन के ब्याह की' सुनी सलौनी बात । आँगी मैन' उरोज अरु आनँद उर न समात ॥३०४।। द्वितीय प्रहर्षण-लक्षण जहँ मनइच्छित अर्थ ते अधिक सिद्धि 'मतिराम' । तहाँ प्रहर्षन औरऊ बरनत मति अभिराम ॥३०॥ उदाहरण चाहत सत पावत सहस, पावत हय चाहि । भावसिंह यौं दानि है, जगत सराहत जाहि ॥३०६॥ चित्र मैं बिलोकत ही लाल को बदन बाल, जीते जिहिँ कोटि चंद सरद पुनीन के ; मुसकानि अमल कपोलनि के रुचिबद, __चमकै तरयोननि के रुचिर चुनीन के । पीतम निहारयो बाँह गहत अचानक ही, __जामैं 'मतिराम' मन सकल मुनीन के , गाडै गही लाज मैं न कंठ है फिरत बैन, मूल छवै फिरत नैन बारि-बरुनीन के ॥३०७॥* १ सों, २ अँगिया में न।

  • देखो रसराज उदाहरण मध्या।