द्वितीय समुच्चय- लक्षण
बहसि करत बहु हेतु जहँ एक काज की सिद्धि ।
इहौ समुच्चय कहत हैं जिनकी है मति सिद्धि' ।।२७९॥
उदाहरण
कुंदन के आँग माँग मोतिन सवारी सारी,
सोहत किनारीवारी केसरि के रंग की ;
कहै ' मतिराम' मनि मंजुल तरौना छोटी,
नथुनी बिराजै गजमुकतन संग की ;
कुसुम के हार हियो हरति कुसंभी आँगी,
सकै को बरनि आभा उरज उतंग की ;
जोबन जरब महा रूप के गरब गति,
मदन के मद मद मोकल मतंग की ॥ २८० ॥
कारक - दीपक -लक्षण
एकहि मैं क्रम सौं भए, तिनको गुंफ जु होय ।
सो कारक- दीपक कह्यो, कबिन ग्रंथ मत जोय ।। २८१ ॥
उदाहरण
फिरिफिरि आवत जाति भजि राति मधुर मुसकाति ।
बाल लाल को ललित मुख लखि ललचाति लजाति ॥ २८२॥
समाधि-लक्षण
और हेतु के मिलन ते सुकरु होत जहँ काज ।
बरनत तहाँ समाधि है सकल सुकबि सिरताज ॥ २८३।।
१ रिद्धि, २ अँगराति । छं० नं० २८० आँग – अंग । जरब - ज़रब = चोट ।