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मतिराम-ग्रंथावली
विकल्प - लक्षण
- सम बलजुत द्वै बात को बरनत जहाँ बिरोध ।
- कवि कोबिद सब कहत हैं तहँ बिकल्प स्रुति' सोध ॥
- २७५।।
उदाहरण
बिपिन - सरन के चरन तकौ राव ही के,
- चढ़ौ गिरि पर कै तुरंग परवर मैं ;
राखौ परिवार कौं कि आपनीये हठ राज-
- संपति दै मिलौ के नगारे दै समर मैं ।
कहै ' मतिराम' रिपुरानी निज नाहनि सौं,
- बोलें यों डरानी, भावसिंहजू के डर मैं ;
बैर तौ बढ़ायो कौ काहू को न मान्यौ, अब
- दाँतनि तिनूका कै कृपान गहौ कर मैं ॥ २७६ ॥
प्रथम समुच्चय-लक्षण
- बहुत भए इकबारगी, तिनको गुंफ जु होय ।
- ताहि समुच्चय कहत हैं, कबि कोबिद सबकोय ॥ २७७ ॥
उदाहरण
- पाइ इकंत के बाल सो बालम जो रति रूप कला दरसावै ;
- नाहीं कढ़े मुख नारि के नाह जहीं हिय सौं हियरो परसावै ।
- काम बढ़ौ ' मतिराम' तहीं अति लाल बिलासनि कौं सरसावै;
- जोवै-त्रसै, मन मोवै अनँद मैं, रोवे - हँस रस कौं बरसावै ॥
- २७८।।
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१ मति २ बैर तब ठान्यो, ३ तहाँ ४ लाज, ५ यों । छं० नं० २७६ राजसंपति समर मैं: या तो धन की भेंट लेकर मिलो या डंका बजाकर सम्मुख समर करो । दाँतनि तिनूक गहौ- अत्यधिक दैन्य-भाव दिखलाओ । छं० नं० २७८ जोवै = देख । त्रस = डर । मन मोवै अनंद मैं मन को आनंदयुक्त करती है ।