पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४१

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समीक्षा

लीजिए। सीताजी के साथ रामचंद्रजी दंडकारण्य में बैठे हैं। शूर्पणखा की नाक काट चुके हैं। एकाएक बदला लेने के लिये खर-दूषण की सेना उन पर चढ़ दौड़ी। इस दृश्य को देखकर सीता के रोमांचित कपोलवाले मुख-कमल को देखते हुए और बार-बार राक्षसों की सेना के कलकल-शब्द को सुनते हुए श्रीरामचंद्रजी अपने जटाजूट की ग्रंथि को सँभालकर बाँध रहे हैं। यहाँ सीता को आलंबन करके श्रृंगार और राक्षसों को आलंबन करके वीर रस एक ही श्रीराम में समाविष्ट हैं, परंतु यह दोष नहीं; क्योंकि श्रृंगार का आलंबन सीता है, और वीर का राक्षस लोग। अतएव यह स्पष्ट है कि भिन्न आलंबन होने से श्रृंगार और वीर का साथ-साथ वर्णन हो सकता है। देवजी की राय में श्रृंगार और शांत का भी साथ-साथ वर्णन हो सकता है। इस मत का समर्थन भी साहित्य दर्पण से होता है। श्रृंगार और शांत का वर्णन यदि बिलकुल पास ही पास हो, ठीक एक के बाद दूसरा वर्णन आ जाता हो, तो वह दूषित है, परंतु यदि यह निरंतरता भंग हो गई हो, बीच में किसी और रस का भी निवेश कर दिया गया हो, तो ऐसा वर्णन सदोष नहीं। नागानंद-नाटक में जीमूतवाहन शांति-रस के पात्र हैं, परंतु उनका मलयवती में अनुराग वर्णित हुआ है। इस शांत और श्रृंगार-वर्णन के बीच में 'अहो गीतम्, अहो वादित्रम्' आदि अद्भुत रस-संस्थापक पदों का प्रयोग हो जाने से ऐसा श्रृंगार और शांत का वर्णन साथ-साथ किया जा सकता है। सो श्रृंगार रस के साथ शांत का भी वर्णन हो सकना प्रमाणित हो गया। जब श्रृंगार के साथ शांत और वीर तक का वर्णन अवसर-विशेष पर संभव है, तो यह मानने में कुछ भी आपत्ति नहीं रह जाती कि करुण-रौद्र को अपने आश्रय में रखते हुए भी विशेष अवसर पर वीर रस शृंगार के साथ-साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है। तथैव शांत भी अद्भुत और बीभत्स को अपना पिछलगू बनाए हुए श्रृंगार