द्विविध पर्याय-लक्षण
कै अनेक है एक मैं, के अनेक मैं एक ।
रहत जहाँ पर्याय सो, है पर्याय बिबेक ॥२६७॥
एक में अनेक उदाहरण
मृदु बोलत कुंडल डोलत कानन, कानन-कुंजनि ते निकस्यौ ;
बनमाल बनी 'मतिराम' हिए, पियरो पट त्यौं कटि मैं बिलस्यौ ।
जब ते सिर-मोर-पषानि धरै, चितचोरि चितै इत ओर हँस्यौ ;
जब तैं दुरि भाजि कै लाज' गई अब लालचु नैननि आनि बस्यौ ।
२६८॥
अनेक में एक-उदाहरण
सखी तिहारे दृगनि की सुधा मधुर मुसकानि ।
बसी रहत निसिद्यौस ह अब उनकी अँखियानि ॥२६९॥
परिवृत्ति-लक्षण
घाटि बाढ़ि द्वै बात को जहाँ पलटिबो होय ।
तहाँ कहत परिबृत्ति हैं कबि-कोबिद सब कोय ॥२७०॥
उदाहरण
मो मन मेरी बुद्धि लै, करि हर कौं अनुकूल ।
लै त्रिलोक की साहिबी, दै अधूर के फूल ॥२७१॥
जोर दल जोरि साहिजादो, साहिजहाँ जंग,
जुरि मुरि गयो रही राव में सरम-सी' ;
कहै 'मतिराम देवमंदिर बचाए जाके,
बर बसुधा मैं बेद, स्रुति-बिधि यौं बसी।
जैसो राजपूत भयो भोज को सप्रत हाड़ा,
ऐसो और तुसरो भयो न जग मैं जसी;
१ राव भावसिंह मैं बिजय-सी।
छं० नं० २७२ स्रुति-बिधि-वेद की रीति, कर्मकांड ।
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मतिराम-ग्रंथावली