तुम पायो सुजस, सुजह गायो' कबि लोग,
___ पायो कवि लोगनि गयंदनि को दान है ॥२६२॥
कनक-बेलि मैं कोकननद, तामैं स्याम सरोज।
तिनमैं मृदु मुसकानि है, तामैं मुदित मनोज ॥२६३॥
___सार तथा यथासंख्य-लक्षण
उत्तर-उत्तर उतकरष, सार कहत सग्यान ।
यथासंख्य क्रम सौं कहैं, क्रम ही बहुरि बखान ॥२६४।।
सार-उदाहरण
सैलनि को जग ऊँचे कहैं तिनमैं कनकाचल कौं स्रुति गावै ;
तापर ऊँचो पुरंदर मंदिर जो छबि बदनि सौं नभ छावै ।
तापर यों 'मतिराम' बखानत ऊँचो मनोरथ दानि कहावै ;
दान मैं भाऊ के हाथ उचाई कौं सोऊ नहीं कलपद्रुम पावै ॥
२६५॥
यथासंख्य-उदाहरण
महाबीर सत्रुसाल-नंद राव भावसिंह,
तेरी धाक अरिपुर जात भय भोय-से ;
कहैं 'मतिराम' तेरे तेज पुंज लिए गुन,
मारुत औ मारतंड मंडल बिलोय-से
उड़त नवत टूटि फूटि मिटि फाटि जात,
बिकल सुखात बैरी दुखिन समोय-से ;
तूल-से तिनका-से तरोबर-से तोयद-से,
_तारा-से तिमिरि-से तमीपति-से तोय-से ॥२६६॥
१ पाए, २ निदान ।
छं० नं० २६३ कोकनद=लाल कमल । छं० नं० ३६६ मारतंड =
सूर्य । बिलोय=मथकर। समोय =संयुक्त । तूल रुई। तरोबर=
वृक्ष । तोयद बादल । तमीपति=चंद्र ।
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Erdashianismahiti
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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४०७
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