३८४ मतिराम-ग्रंथावली RE 'मतिराम' चारिहूँ समुद्रनि के कूलनि लों, ___फैलत समूह तेरे सुजस सुगंध के। जगत बखानी चहवानी सुलतानी और, नहीं अवनी में अवनीप समकंध के; तो मैं दोऊ देखिए दिवान भावसिंह, चहुवान कुलभानू सुलतान बलाबंध के ॥१६॥ क्यों न फिरै सब जगत मैं करत दिगविजै मार। जाके दृग-सामंत हैं कुबलय जीतनहार' ॥१६६॥ परिकरांकुर-उदाहरण देखें बानिक आज को वारौं कोटि अनंग । भलो चलौ मिलि साँवरो अंग-रंग पट-रंग ॥१६७॥ श्लेष-लक्षण श्लेष कहावत है जहाँ, उपजत अर्थ अनेक । प्रकृत अप्रकृत मिलि बिबिधि, प्रकृताप्रकृत बिबेक ॥१६८।। प्रकृत-उदाहरण ललित राग राजत हिए नायक जोति बिसाल । बाल तिहारे कुचन बिच लसत अमोलिक लाल ॥१६८।। १ वार। छं० नं० १६५ सिंधुर हाथी। समकंध=बराबरी के। छं० नं० १६६ भावार्थ-कामदेव का सारी पृथ्वी पर दौरा क्यों न हो जब उसके नेत्र-सेनापति कुवलय (कमल, पृथ्वीमंडल) को जीतने वाले हैं। काम की ऐसी मोहनी आँखें हैं कि वह सभी कुछ वश में कर लेता है। १ कुवलय=चंद्रविकासी कमल । २ कु (पृथ्वी), वलय (मंडल)=पृथ्वी- मंडल । छं० नं० १६९ लाल =१ कृष्ण, २ रत्न । कृष्ण और रत्न दोनों ललित हैं, कृष्ण हृदयानुरागी हैं, रत्न का रंग हृदयस्थल पर शोभित है, कृष्ण नायक और खूब दीप्तिमान है, रत्न भी दीप्तिमान रत्नों में श्रेष्ठ है ।
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