३ मतिराम-ग्रंथावली उदाहरण संकर कौं ध्याय सरस्वती कौं रिझाय सीष , सेष ह की पाय मति अति सरसाय क; कहै 'मतिराम' सत्रसाल नंद भावसिंह , तब कोऊ सकै तेरे गुननि गनाय के । औरनि के औगुननि तपि कविजन राव , होत हैं सुखित तेरी कित्ति बर न्हाय के ;
- खाय के अँगार आँच औटि के चकोर गन',
होत हैं मुदित चंद चाँदनी कौं पाय के ॥१४३।। पिसुन बचन सज्जन चिते सके न फोरि न फारि। कहा करे लगि तोय मैं तुपक तीर तरवारि ॥१४४।। दष्टांत-लक्षण पद समूह जुग धर्म जहँ, जिमि बिंबहि प्रतिबिंब । सुकबि कहत दृष्टांत है, जे मन दर्पन बिंब ॥१४५।। उदाहरण पगी प्रेम नंदलाल के हमैं न भावत जोग। मधुप, राजपद पाय के, भीख न माँगत लोग ॥१४६॥ भोज बली रतनेस भए ‘मतिराम' सदा जस चाड़न ही मैं ; नाथ सता समरत्थ दुहनि दले अरि तेज सौं ताड़न ही मैं । भाऊ नरिंद के धाक धुके अरि जाय गिरे गिरि-गाड़न ही मैं ; जीत महीपति हाड़नहीं महँ जोति दधीच के हाड़न ही मैं ॥१४७॥ १ जैसे छं० २० १४३ सीष सिखापन अथवा आशीर्वाद । औरनि के औगुननि न्हाय कै= कविगण और राजाओं के अवगुणों का बखान करते- करते संतप्त हो जाते हैं वही राव भावसिंह की कीर्ति को अवगाहन करके सुखी होते हैं। छं० नं० १४४ पिसुन =नीच। तोय =जल । छ० नं० १४६ मधुप-उद्धवजी । छं० नं० १४७ गाड़गढ़ा।