- ललितल लाम ३६७ उदाहरण पारावार पीतम को प्यारी कै मिली है गंग , बरनत कोऊ कबि कोबिद निहारि कै ; सो तो मतो 'मतिराम' के न मनमानै निज , ___मति सौं कहत यह बचन बिचारि . के। जरत बरत बड़वानल सों बारिनिधि , . बीचिनि के सोर सौं जनावत पुकारि कै; ज्यावति बिरंचि ताहि प्यावत पियूष निज, कलानिधि मंडल कमंडल तें ढारि कै ॥८८ ॥ हेत्वपह्न ति-लक्षण युक्ति-सहित ‘मतिराम' जहँ शुद्धापहृति होय । हेतु अपह्न ति कहत हैं, तहाँ सुकबि सब कोय ॥ ८९ ॥ उदाहरण बालबदन-प्रतिबिंब बिधु, उयो रह्यो तिहि संग। उयो रहत अब रजनि दिन, तपन तपावत अंग ॥ ९० ॥ पर्यस्तापह्न ति-लक्षण धर्म और मैं राखिए, धर्मी साँचु छपाय । परजस्तापह्न ति कहत, ताहि बुद्धि सरसाय ॥ ९१ ॥ पण १ उदत बिब रह्यो। छं० नं० ८८ पारावार=समुद्र । जरत बरत 'ढारि के समुद्र बड़वानल के विषम संताप से झुलसा जाता है और अपने इस कष्ट को प्रकट करने के लिये तरंगमालाओं का शोर करता है अर्थात् तरंगों के उठने में जो शब्द होता है वह मानो संतप्त समुद्र अपना दु:ख जताने को शोर कर रहा हो । इस शब्द को सुनकर ब्रह्माजी अपने चंद्रमा- कमंडलु को उठा लेते हैं और उससे अमृत ढालकर समुद्र को पिलाते हैं और उसके जीवन की रक्षा करते हैं । इस प्रकार ब्रह्मा ने अपने चंद्र- रूपी कमंडलु से जो सुधा-धारा बहाई है वही गंगाजी हैं।
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