३४० मतिराम-ग्रंथावली Radha काजु कहा कुलकानि सौं, लोक-लाज किन जाय ? कुंज बिहारी कुंज मैं कहूँ मिल' मुसकाय ॥ ४०५ ।। स्मृति-लक्षण लखी-सुनी पिय बात को, जो सुमरन मन होय । स्मृति तासौं कबि कहत हैं, सब रसग्रंथ बिलोय ॥४०६॥ उदाहरण आलस बलित कोरे काजर कलित, 'मतिराम' वे ललित बहु पानिप धरत हैं; सारस सरस सोहैं सलज सहास सगरब, सबिलास वै मृगनि निदरत हैं। बरुनी सघन बंक तीच्छन तरल बड़े, लोचन कटाच्छ उर पीर ही करत हैं; गाढ़े है गड़े हैं न निसारे निसरत मैन- बान-से बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं ॥४०७।। सोभा सो रति सुंदरी, नव सनेह सौं बाम । तन बूड़त रँग पीत मैं, मन बूड़त रँग स्याम ॥४०८।।. गुण-वर्णन-लक्षण बिरह बीच जो पीय की, सुंदरितादि सराह । गुन बर्नन तासौं कहैं, जे प्रबीन कबिनाह ॥४०९॥ १ मिलें मोहिं। छं० नं० ४०७ आलस बलित=आलसयुक्त । बहु पानिप धरत= बहुत आबदार हैं। सारस=कमल । मृगनि निदरत हैं=मग के नेत्रों का निरादर करते हैं । तरल चंचल । गाढ़े कै गड़े हैं खूब गहरे गड़े हैं । न बान-से बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं नेत्र कामदेव के बाण के समान हैं, विषसंयुक्त हैं और भुलाने से भी नहीं भूलते हैं। .
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