पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३४१

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... रसराज ३३७ भई देवता भाव बस' वह, तुमकौं बलि जाउँ । वाही को मन ध्यान है, वाही को मन नाउँ ।। ३९१॥ गुरुमान-लक्षण बोलत और तियान सौं पिय कौं देखै बाम । होत तहाँ गुरुमान, सो बरनत कबि ‘मतिराम' ।। ३९२ ॥ उदाहरण तेरे प्रानप्यारे कहूँ सहज सुभाय प्यारी ! कहा भौ कहीं जो कछ बात' का बाल सौं ; ताको एती रिस है अयानिन की रीति तू तौ, दीप की-सी जोति जगे जोबन रसाल सौं। कबि 'मतिराम' मेरो कह्यौ उर आनि आली! ठान जिन मान ऐसे मदनगुपाल सौं ; भौंहैं करि सूधी बिहसोहैं के कपोल नैंक', सौंहैं करि लौचन रसौहैं। नंदलाल सौं॥ ३९३ ॥ बहु नायक सौं बात मैं मानु भलो न सयानु। दुख-सागर मैं बूड़िहै, बाँधि गरे गुरु मानु ॥ ३९४ ॥ प्रवास-लक्षण पीतम बसे बिदेस मैं, बिरह जहाँ सरसाय । बरनत तहाँ प्रवास कहि, जे प्रबीन कबिराय ॥ ३९५ ॥ १ सब, २ भयो बात जो कही सु, ३ ऐसी, ४ कै, ५ गोल, ६ रिसौहैं । छं० नं० ३९३ अयानिन =अज्ञानी लोग । सौंहैं करि लोचन रसौंहैं नंदलाल सौं=अरी सखी, तू रसिक नंदलाल के सामने अपनी आँखें कर अर्थात् मान छोड़कर उनको स्नेह-पूर्वक देख । छं० नं० ३९४ दुख-सागर ...गुरु मानु=इस गुरुमान को गले में बाँधने से तू दुखसागर में डूब जायगी, उससे पार न पा सकेंगी।