RE SIC रसराज ३३५ वियोग-शृंगार प्यारी पीव' मिलाप बिनु होत नहीं आनंद । सो वियोग-सिंगार कहि बरनत सब कबि-बंद ॥ ३८० ॥ वियोग-शृंगार-भेद कहि पूरब अनुराग अरु मान, प्रवास बिचारि । रस सिंगार बियोग के तीन भेद निरधारि ॥ ३८१॥ - पूर्वानुराग-लक्षण जो प्रथमहिं देखे, सुने बड़े प्रेम की लाग । बिन मिलाप जो बिकलता सो पूरब अनुराग ॥ ३८२ ॥ उदाहरण न्योते गए कहँ नेह बढ़यौ 'मतिराम' दुहँ के लगे दग गाढ़े; ऊँचे अटा पर काँधे सहेली के ठोढ़ी दिए चितवै दुख बाड़े। लाल चले सुनि के गृह कौं, तिय-अंग अनंग की आगि सौं डाढ़े; मोहनजू मन गाढ़ो करें, पग द्वैक चलें फिर होत हैं ठाढ़े ॥ निरखो ! नेह दुहुन की दई नई यह बात । सूखति देंह दुहन की त्यौं पानिप सरसात ।। ३८४ ॥ _ मान-वर्णन मान कहत हैं तीनि विधि, लघ, मध्यम, गुरु नाम । तिनके भेद बनाय के बरने कबि 'मतिराम' ॥ ३८५ ॥ १ पिया, २ न हिय, ३ कहि, ४ नवीन मैं । छं० नं० ३८३ अनंग की आगि सौं डाढ़े कामाग्नि से संतप्त । छं० नं० ३८४ सूखति देह 'पानिप सरसात=ज्यों-ज्यों दोनों का शरीर सूखता जाता है त्यों-त्यों उसकी आब बढ़ती जाती है।
पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३३९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।