पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३३५

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रसराज

PAPER ANSACARASITORSANTMLEV 32955 मजा HomeKHANI CAMERA रसराज ३३१ जानति हौं 'मतिराम' तऊ, चतुराई की बात नहीं उचरौंगी ? . किंकिनि को उरु हारु किए, कहि कौन सौं जाय बिहार करौंगी? ३६० ॥ अली चली कहि कौन पै? बड़े कौन के भाग। उलटी कंचुकि कुचन पं कहै देत अनुराग ॥ ३६१ ॥ किलकिंचितहाव-लक्षण हरष, गरब, अभिलाष, स्रम, हास, रोष अरु भीति । होत एक ही संग हैं, किलकिंचित यह रीति ॥ ३६२ ॥ उदाहरण लालन बाल के द्वै ही दिना तें परी मन आनि सनेह की फाँसी ; wal काम कलोलनि मैं 'मतिराम' लगैं मनौ बाँटन मोद की आँसी। ----- पीतम के उर बीच चुभ्यो दुलही के बिलास मनोज की गाँसी ; स्वेद बढ़यौ तन कंप उरोजनि, आँखिन आँसू कपोलनि हाँसी ॥ सकुचि न रहिए साँवरे ! सुनि गरबीले बोल। चढ़त भौंह, बिकसत नयन, बिहँसत गोल कपोल ॥ ३६४ ।। मोट्टाइतहाव-लक्षण बातन को बिघटन भए, पुनि मिलाप की चाह । सो मोट्टाइत जानियो, बरनत सब कबिनाह ।। ३६५ ।। १ न हीय धरौंगी। छं० नं० ३६० चउरौंगी=उच्चारण करेगी। छं० नं० ३६३ सनेह की फाँसी प्रेम का बधन । लगै मनौ बाँटन मोद की आँसी=मानो आनंद का बायन (मिठाई जो विशेष आनंदोत्सवों पर बाँटो जाती है) बँटने लगा। आँसी बैना। मनोज की गाँसी काम का तीखा बाण । VERTERS