पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३३१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३२७
रसराज

PASTE रसराज ३२७ । उदाहरण जा दिन ते छबि सौं मुसक्यात कहूँ निरखे नंदलाल विलासी; ता दिन' तें मन-ही-मन मैं ‘मतिराम' पियें मुसक्यानि सुधा-सी। नैकु निमेष न लागत नैन चकी चितवै तिय देव-तिया-सी ; चंद्रमुखी न हलै, न चलै, निरबात निवास मैं दीप-सिखा-सी ।। ३३७॥ तो मैं अनमिषनैनता मोहन मूरति मैन । अनमिष नैन सुनैन ये निरषत अनमिष नैन ॥ ३३८ ॥ जुभा-लक्षण जभा कौं कबि कहत हैं नवयों सात्त्विक भाव। उपजै आलस आदि से बरनत सब कबिराव ॥ ३३९ ॥ ___उदाहरण केलि के सकल राति प्रात उठि अँगिराति, नींद भरे लोचन जूगल बिलसत है; लाजनि तें अंगनि दुरावति हैं बार - बार, खेंचि करि बसन बिहारी बिहँसत है। कबि 'मतिराम' आई आलस अँभाई मुख, में ऐसी मनभावती की छबि सरसति है; अरुन उदोत मनो सोभा के सरोवर मैं, सोभा मानि सोभा को सरोज विकसत है ॥ ३४० ॥ आयो पीव बिदेश तें बहुत द्यौस बिताय। सखी उठाई पास ते साँझहि ते जमुहाय ॥ ३४१ ।। - १ छन, २ देह दिया-सी, ३ अंगराति, अरसाति, ४ आरस, ५ सखिन । छं० नं० ३३७ देव-तिया=सुरांगना; इनकी पलक नहीं लगती है ऐसा प्रसिद्ध है। निरबात निवास-वायुशून्य स्थान । छं० नं० ३३८ अनमिषनैनता नेत्रों की पलकों के न गिरने की दशा ।