रसराज ३२५ कंप-लक्षण क्रोध', हर्ष, भय, आदि तैं थरथराति जो देह । ताहि कंप यौं कहत हैं कबि कोबिद मतिगेह ॥३२७।। . उदाहरण चंद्रमुखी अरविंद की बालनि गूदत रूप अनूप सुधारचौ ; काम-सरूप तहाँ 'मतिराम' अनंद सौं नंदकुमार पधारयौ। देखत कंप छुट यो तिय के तन यौं चतुराई को बाल उचारचौ; सीरे सरोज लगे सजनी कर काँपतु जातु न हार सँवारयौ । ३३८॥ लाल बदन लखि बाल के कुचन कंप रुचि होति । चपल होत चकवा मनो चाहि चंद की जोति ॥३२९॥ वैवर्ण्य-लक्षण मोह, कोह, भय, आदि तें, बरण और बिधि होय। ताहि कहत बैबर्ण हैं, सकल सयाने लोय ॥३३०॥ ___उदाहरण छल सौं छबीली कौं सहेलिन लिवाय” करि, ऊपर अटारी जाय रूप रच्यो ख्याल को; कबि 'मतिराम' भूषनन की झनक सुनि, _चाय भौ चपल चित रसिक रसाल को। अली चली सकल अलीक मिस करि-करि,.. आवत निहारि करि मदनगोपाल को ; लालन को इंदु सौ बदन अवलोकि, ... अरबिंद-सौ बदन कुम्हिलाय गयौ बाल को ॥३३१।। .१ कोप, २ इंदुमुखी, ३ सिधारयो, ४ बुलाय । ___ छं० नं० ३२८ पधारयौ आए । सीरे ठंढे । छं० नं० ३३१ अलीक मिस करि-करि=झूठा बहाना कर-करके ।
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