पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३२७

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३२३
रसराज

रसराज ३२३ स्वेद के बूंद लसै तन मैं, रति अंतर ही, लपटाय' गुपालहि; मानो फली मुकता फल पुंजन, हेमलता लपटानी तमालहि । ३१९॥ कुच तैं स्रम जलधार चलि मिलि रोमावलि रंग। मनो मेरु की तरहटी भयो सितासित संग ॥३२०॥ रोमांच-लक्षण हरष भयादिक तें प्रगट रोम उमँग जो अंग। ताहि कहत रोमांच हैं, कबिजन सुमति उतंग ॥३२१॥ उदाहरण चंद्रमुखी हाँसी मैं चमेली की लता-सी होति, चंपक-लता-सी अंग जोति को धरति है: कबि ‘मतिराम' तेरे अंग की सुबास लहै, कौन बेली ऐसी हिए जानि न परति है। नेसक निहारे ते नवेली नैन कोरन सौं, - ऐसी अद्भुत की कलानि आचरति है; १ भरि अंक, २ फूली, ३ मेरु गिरि, ४ कोर नैनन । छं० नं० ३१९ चारु पसार महारस जालहि रसजाल का सुंदर प्रसार । अत्यधिक रसविस्तार । निहाल प्रसन्न । अंतर ही-बीच में ही। मानो तमालहि रति-समय में नायिका कृष्ण से लिपटी हुई है और उसके शरीर पर पसीने के बूंद झलक रहे हैं। यह दृश्य ऐसा जान पड़ता है मानो तमाल (श्यामवर्ण) वृक्ष में सोने की लता लिपटी हो और उसमें मोती फले हों। छं० नं० ३२० मेरु की तरहटी=सुमेरु पर्वत का नीचे का भाग । सितासितगंगा और यमुना।