पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३२५

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रसराज

SoENKESATH रसराज ३२१ बातन' सुनत अँगरात अलसात गात, ___सोहैं करि नैन बिहसोहैं भई नेक है ॥३०७॥ जोबन मंडित आपनैं अजौ न जानत गात । तो चित मैं अति चटपटी निपट अटपटी बात ॥३०॥ अनुभाव-वर्णन जिनते चित रति भाव को आछो अनुभव होय । रस सिंगार अनुभाव तिहि वरनत कबि सब कोय ॥३०९।। लोचन, बचन, प्रसाद, मृदु, हास, भाव, धृति, मोद । इनते प्रगटत भाव रति, बरनहि सकबि बिनोद ।।३१०॥ गहि हाथ सौं हाथ सहेली के साथ मैं, आवति ही बृषभानलली; 'मतिराम' सबास ते आवत नीरे, निवारत भौंरन की अवली। लखि के मनमोहन कौं सकूची,करयौ चाहत आपनी ओट अली; चित चोरि लियो दृग जोरि तिया,मुख मोरि कछू मुसकाय चली।। ३११॥ सहज बात बूझत कछू बिहँसि नवाई ग्रीव । तरुन हिए तरुनी दई, नए नेह की नीव ॥३१२॥ १ बात, के २ चख, ३ सीव । की रीति चतुराई चतुराई लिए कहै मूर्ख लोगों को बात करने का शऊर नहीं होता है। वे बात इस प्रकार से करते हैं मानो कोई ढेला डाल दिया हो, पर चतुर लोग बात करने में भी चतुरता का आश्रय लिए रहते हैं। मनसिज ओज सेक है=कामदेव के प्रभाव की कुछ गर्मी मंह पर आ गई है। छं० नं० ३११ नीरे निकट । अली=सखी । मुख मोरि=मुंह मोड़कर। छं० नं. ३१२ ग्रीव-ग्रीवा=गरदन । तरुन हिए तरुनी दई, नए नेह की नीव=बात पूछने पर नायिका ने गरदन झुका ली तो ऐसा जान पड़ा कि नायिका ने नायक के हृदय में नवीन स्नेह स्थापित कर दिया।