पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२६७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसराज उदाहरण जाके अंग-अंग की निकाई निरखत आली, वारनें अगंन की निकाई कीजियतु है ; कबि' 'मतिराम' जाकी चाह ब्रजनारिन को, देह अँसुवान के प्रबाह भीजियतु है। जाके बिनु देखे न परत कल तुमहूँ कौं, जाकें बैन सुनत सुधा-सी पीजियतु है ; ऐसे सूकूमार प्रिय नंद के कूमार को यों फूलन के मालन की मारु दीजियतु है ॥ ५० ॥ जहाँ-जहाँ सखि, देत तू फूल-माल की मारु । तहाँ-तहाँ नंदलाल के उठे रोम तन चारु ॥ ५१ ॥ प्रौढा-धीरा-अधीरा-लक्षण रति-उदास है नाह को डर दिखरावै बाम । प्रौढ़ अधीरा धीर तिय बरनत कबि 'मतिराम' ॥ ५२ ॥ उदाहरण प्रीतम आए प्रभात प्रिया-घर, राति रमैं रति-चिह्न लिए ही; बैठि रही पलका पर सुंदरि नैन नवायके, धीर धरें हीं। बाँह गहैं 'मतिराम' कहैं, न रही रिस मानिनी के हठ के हीं; बोली न बोल कछ , सतरायकें, भौंह चढ़ाय तकी तिरछौंहीं । ५३ ॥ आवत उठि आदर कियो, बोली बोल रसाल। बाँह गही नंदलाल जब, भए बाल-दृग लाल ॥ ५४॥ १ कहें, २ ऐरी बौरी फूलन की मारु दीजियतु है, ३ उठत, ४ कहत सूकवि, ५ पौढ़ि, ६ बोल, ७ बोल । छं० नं० ५० निकाई=शोभा । वारने न्योछावर करना । प्रबाह बहाव, धारा। छं० नं० ५१ उठ रोम तन चारु=रोमांच हो जाता है। छं० न० ५३ सतरायकें=गर्व-संयुक्त अनमनी होकर । तकी तिरछौंहीं टेढ़ी निगाह से देखा ।