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मतिराम-ग्रंथावली

है, तथा कुत्सित साहित्य के प्रचार में रुकावट उत्पन्न होती है, इसलिये किसी भी भाषा के साहित्य को दृढ़ करने के लिये सत्समालोचना परमावश्यक है। अँगरेज़ी-साहित्य में समालोचना की बहुत बड़ी उन्नति हुई है। एक-एक कवि पर हज़ारों पृष्ठों के समालोचना ग्रंथ लिखे गए हैं, इससे योग्य कवियों पर अँगरेज़ों का अनुराग बहुत बढ़ गया। प्रसिद्ध समालोचक कार्लाइल ने निस्संकोच कह डाला कि यदि शेक्सपियर और भारतीय साम्राज्य, इन दो में से इँगलैंड के हाथ से एक के निकल जाने का डर हो, तो मैं निःसंदेह इंगलैंड को यह सलाह दूँगा कि भारतीय साम्राज्य जाने दो, पर अपने शेक्सपियर को न छोड़ना। अपने कवियों पर अभी हमारा ऐसा प्रेम कहाँ है? हम तो उनसे घृणा करते हैं।

इतिहास

ब्रज-भाषा में कविता का सफलता-पूर्वक व्यवहार विक्रम-संवत् की १५वीं शताब्दी से होने लगा। ब्रज-भाषा के वास्तविक प्रथम कवि साहित्य-संसार के सूर्य महात्मा सूरदास हैं। इस भाषा के सर्व-श्रेष्ठ कवि भी यही हैं। ब्रज-भाषा के अन्य प्रतिभावान् कवियों में देव, सेनापति, बिहारी, केशव, मतिराम और भूषण का पद बहुत ऊँचा है। फिर क्रम से दास, बेनीप्रबीन और पद्माकरजी की उत्कृष्ट रचनाओं से भाषा-साहित्य का शृंगार हुआ है। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के बाद से ब्रज-भाषा में कविता का होना कम हो गया। इस समय तो ब्रज-भाषा-काव्य की दशा परम शोचनीय है।

काल की कुटिल गति से लोगों का ब्रज-भाषा-काव्य में अनुराग जाता रहा। कुछ समय तो यह भाव केवल विरक्ति के रूप में रहा, परंतु बाद को इसने विरोध का रूप धारण किया। कुछ समय के लिये लोगों की रुचि में ऐसा परिवर्तन उपस्थित हुआ कि वे ब्रज-भाषा-कविता को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। पर यह क्रम थोड़े ही समय