- - समीक्षा २३५ है, वह उभय ग्रंथों में किस ग्रंथ के लक्षण के उदाहरण में विशेष चस्पा होता है। मेरे विचार से यदि ये शृंगार-रस के छंद ललित ललाम के अलंकार-लक्षणों के उदाहरणों में रसराज के उदाहरणों से विशेष चस्पाँ हैं, तो वे ललित ललाम के लिये ही बनाए गए हैं, और वहीं से उठाकर रसराज में रक्खे गए हैं, पर यदि वे रसराज में दिए गए लक्षणों के उदाहरण में विशेष चस्पाँ हों, तो ललित ललाम में उनको बाद को स्थान मिला है। उदाहरण के लिये दो छंद लीजिए- (१) “सतरौहीं भौहन नहीं दुरत दुराए नेह; होत नाम नंदलाल के नीपमाल-सी देह ।" उपर्युक्त छंद ललित ललाम में चंचलातिशयोक्ति के उदाहरण में दिया है, और रसराज में लक्षिता-नायिका के उदाहरण में । लक्षिता और चंचलातिशयोक्ति, दोनो का निर्वाह दोहे में भली भाँति होता है। परंतु संपूर्ण दोहे पर लक्ष्य रखने से यह साफ़ प्रकट होता है कि कवि ने जब दोहे की रचना की, तो उसका लक्ष्य लक्षिता-नायिका ही थी। दोहे की प्रथम पंक्ति चंचलातिशयोक्ति के लिये आवश्यक नहीं है, पर लक्षिता के लिये उस पंक्ति का अभाव सहन नहीं किया जा सकता। दूसरी पंक्ति दोनो के लिये समान हितकारिणी है। हमारी राय है, उपर्युक्त दोहा लक्षिता-नायिका के उदाहरण में विशेष रूप से चस्पा है। (२) "जा दिन ते चलिबे की चरचा चलाई तुम, ता दिन ते वाके पियराई तन छाई है। 'कबि मतिराम' छोड़े भूषन-बसन, पान, - सखिन सों खेलनि - हँसनि बिसराई है। आई ऋतु सुरभि, सुहाई प्रोति वाके चित, ऐसे मैं चलौ तौ लाल, रावरी बड़ाई है। सोवति न रैन-दिन, रोवति रहति बाल, बूझे तें कहति, सुधि मायके की आई है।"
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