जैसो रजपत भयो भोज को सपूत हाड़ा,
ऐसो और दूसरो भयो न जग मैं जसी
गायनि को बकसी कसायनि की आयु सब,
गायनि की आयु सो कसायनि को बकसी।"
रावरत्नजी का संवत् १६८८ में स्वर्गवास हो गया। पुत्र गोपीनाथजी का देहांत तो पहले ही हो चुका था, इसलिये पौत्र छत्रसाल या शत्रुशल्यजी बूंदी के राजसिंहासन पर बैठे।
छत्रसाल
छत्रसालजी बड़े ही वीर पुरुष थे। इन्होंने ५२ लड़ाइयों में भाग लिया था। इनके वीरता के काम सुनकर आश्च र्य-चकित रह जाना पड़ता है। इनका यशोविस्तार 'शत्रुशल्य-चरित्र'-नामक संस्कृत ग्रंथ में खूब हुआ है। कविवर भूषण' एवं 'लाल' ने भी कई छंदों द्वारा इनकी प्रशंसा की है। मतिरामजी के आश्रयदाता राव भावसिंहजी के तो यह पिता ही थे। ललित ललाम में इनकी प्रशंसा के कई छंद हैं। औरंगजेब और दाराशिकोह में दिल्ली के तख्त के लिये जो घोर युद्ध हुआ था, उसमें सम्राट शाहजहाँ की आज्ञा से यह दारा की ओर से लड़े थे। उस भीषण लड़ाई में जब दारा की सेना भाग निकली, तब इन्होंने औरंगजेब से डटकर लड़ाई की, और प्राण रहते उसे आगे न बढ़ने दिया। अंत में जब यह युद्ध-स्थल में मारे गए, तब कहीं विजयलक्ष्मी औरंगजेब के हाथ आई। इनके शत्रु भी इनकी वीरता की प्रशंसा करते थे। राजपुताने के इतिहास में इनके जोड़ के वीर दो ही चार मिलेंगे। ऊपर जिस भयंकर युद्ध का उल्लेख हुआ है, उसी को लक्ष्य करके कविवर मतिरामजी कहते हैं—
"औरंग-दारा जुरे दोउ युद्ध, भए भट क्रुद्ध बिनौद-बिलासी;
मारू बजै, 'मतिराम' बखानै, भई अति अस्त्रनि को बरषा-सी।