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समीक्षा

 

मूछन सों राव-मुख लाल रंग देखि, मुख
औरन को मूछन बिना ही स्याम रंग भो।"

ऐसे अवसर पर केवल बादशाह के कह देने-मात्र से मूछे मुड़ा डालना वास्तव में बड़े ही अपमान की बात थी। जिन राजों ने ऐसा किया, उनकी हया (लज्जा) मानो नष्ट हो गई। अकेले भोजराज ने मूछे न मुड़ाकर मानो राजपूती लज्जा की रक्षा की। लज्जा बेचारी को एकमात्र भोज ही की मूछों में आश्रय मिला। लज्जा का सारा भार उन्हीं की मूछों को उठाना पड़ा। फिर भी बात बड़ी अद्भुत हुई। भोज का मुख लज्जा के भार से झुक जाना चाहिए था, पर वहा सीध रहा, विपरीत इसके और नृपतियों के मुख, जो मूछ मुड़ाने के कारण लज्जा-भार से हलके हो रहे थे, नीचे को झुक गए। कैसी मर्मस्पर्शिनी और चतुराई से भरी असंगति है—

"दारुन तेज दिलीस के, बीरन काह न बंस के बाने बजाए;
छोड़ि हथ्यारन, हाथन जोरि तहाँ सबही मिलि मूॅंड़ मुड़ाए।
हाड़ा हठी रह्यो ऐंड किए, 'मतिराम' दिगंतन मैं जस छाए;
भोज के मूछन लाज रही, मुख औरनि लाज के भार नवाए।"

रतन

संवत् १६६४ में रावराजा भोज का स्वर्गवास हो गया, और उनके पुत्र रावराजा रत्नसिंह बूंदी के सिंहासन पर आ विराजे। यह दिल्लीश्वर जहाँगीर के परम कृपा-पात्र थे। उसने इनको अपने रोज़-नामचे में सर बुलंदराय के नाम से संबोधित किया है। सर बुलंदराय का अर्थ है, सबके सामने सिर ऊँचा रखनेवाला, किसी को भी सिर न झुकानेवाला। रावराजा रत्नसिंह के समय में बूंदी और दिल्ली में बड़ा मेल रहा। दक्षिण के निजामशाही, कुतुबशाही आदि पठान राज्यों और मुग़लों में छेड़छाड़ होती ही रही, तथा दिल्लीश्वर की