पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२०३

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समीक्षा

का चित्र इससे सुंदर है । वृंदावन का मनोहर दृश्य है। गोपीनाथ गोपियों को छोड़कर वृंदावन से मथुरा चले गए हैं, पर प्रेम-रंग में रँगी गोपियों को आज भी व्रजेश से वियोग नहीं समझ पड़ता है। श्रीकृष्ण की मधुर मुरली का सुखद संगीत आज भी उनके कर्ण-कुहरों‌ में वैसा ही प्रविष्ट हो रहा है, कालिंदी-कूल के कुंजों में कुंजविहारी के आज भी वैसे ही दर्शन होते हैं। प्यारे के कोमल शरीर-स्पर्श का सुख आज भी उनके हृदयों को वैसे ही उल्लसित करता है, फिर क्या आवश्यकता कि कठिन तपस्या करके कृष्ण-प्राप्ति का कठोर प्रयास किया जाय? क्या ही अनूठा भाव है!

"निसि-दिन स्रौनन पियूष-सो पियत रहै,
छाय रह्यौ नाद बाँसुरी के सुर-ग्राम को;
तरनि-तनूजा-तीर, बन-कुंज, बीथिन मैं,
जहाँ-तहाँ देखियत रूप छबि-धाम को।
'कबि मतिराम' होत हाँतो ना हिए तैं नेक,
सुख प्रेम-गात को परस अभिराम को;
ऊधो, तुम कहत बियोग तजि जोग करौ

जोग तब करें, जो बियोग होय स्याम को।"

(मतिराम)

एक ऐतिहासिक घटना का वर्णन होने से मतिराम के वर्णन में और भी उत्कृष्टता आ गई है।

इतिहास

कविवर मतिरामजी के 'ललितललाम'-ग्रंथ में अनेकानेक ऐसे वर्णन आ गए हैं, जिनका राजपूताने के प्रसिद्ध बूंदी-राज्य के इतिहास से संबंध है। जिन पाठकों ने बूंदी-राज्य का इतिहास नहीं देखा, उन्हें ऐसे वर्णन समझने में कठिनता होगी। इस कारण हम